Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-६. ६५ ] मोक्षप्राभृतम्
गुणेषु ये दोषमनीषयान्धा दोषान् गुणीकर्तु मधेशते थे।
श्रोतु कवीनां वचनं न तेऽहाः सरस्वतीद्रोहिषु कोऽधिकारः ॥१॥ __ अथवा गुरूणां पंचतयानां परमेष्ठिनां प्रसादादात्मा प्रभुलभ्यते । तेषां प्रसाद विना आत्मप्रभून प्राप्यत इत्यर्थः । यथा राजानं द्रष्टुकामः कश्चित् पुमान तत्सामन्तकादीन् पूर्वं पश्यति ते तु राजानं मेलयन्ति, तानन्तरेण तत्र प्रवेष्टुमपि न लभ्यते इति कारणात् पूर्व पंचदेवताः प्रसादनीया आत्मलाभमिच्छता योगिनेति भावार्थः।
दुक्खे गज्जइ अप्पा अप्पा गाऊण भावणा दुक्खं । भावियसहावपुरिसो विसएसु विरच्चए दुक्खं ॥६५॥ दुःखेन ज्ञायते आत्मा आत्मानं ज्ञात्वा भावना दुःखम् । भावितस्वभावपुरुषो. विषयेषु विरज्यति दुःखम् ॥ ६५ ॥ (दुक्खं गज्जइ अप्पा ) दुःखेन महता कष्टेन तावदात्मा ज्ञायते आत्मास्तीति बुद्धिरुत्पद्यते । ( अप्पा गाऊण भावणा दुक्खं ) यद्यात्मास्तीति शातं तदा तस्मिनात्मनि भावना वासनाऽहनिशचिन्तनं तद्गुणस्मरणादिकं दुःखं दुष्प्राप्यं भवति ।
गुणेषु ये-जो गुणों में दोष बुद्धि से अन्धे हैं अर्थात् गुणों को दोष सिद्ध करते हैं और दोषों को गुण सिद्ध करने की सामर्थ्य रखते हैं वे कवियों के वचन सुनने के योग्य नहीं हैं। सरस्वती द्रोहियों का अधिकार ही क्या है? - अथवा गुरु से पंच परमेष्ठियों का ग्रहण करना चाहिये। उन्हीं के प्रसाद से आत्मा रूपी प्रभुका लाभ होता है अर्थात् उनके प्रसादके बिना बात्मा रूपी प्रभुकी प्राप्ति नहीं होती। जिस प्रकार राजाके दर्शनको इच्छा करने वाला कोई पुरुष पहले उनके सामन्त आदि से मिलता है क्योंकि वे उसे राजासे मिला देते हैं उनके बिना वहाँ प्रवेश भी प्राप्त नहीं होता इसलिये आत्मलाभ के इच्छुक मुनिको पहले पंचपरमेष्ठियों को प्रसन्न करना चाहिये ॥ ६४ ॥
पाया-प्रथम तो आत्मा दुःख से जानी जाती है, फिर जान कर उसकी भावना दुःख से होती है फिर आत्म स्वभाव की भावना करने बाला पुरुष दुःख से विषयों में विरक्त होता है ॥६५॥
विशेषार्थ-प्रथम तो 'मैं आत्मा हूँ' इस प्रकार की बुद्धि ही बड़े दुःख से उत्पन्न होती है तदनन्तर आत्मा हूँ इस प्रकार का ज्ञान भी यदि हो ' जाता है तो उस आत्मा को निरन्तर भावना करना-रातदिन उसो के
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