Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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६४० षट्शाभूते
[६.६४प्रसादेन निम्रन्याचार्यवर्यस्य कारुण्येन । गुरुप्रसादं विना "द्रष्टव्यो वा रेऽयमात्मा श्रोतव्योऽनुमन्तव्यो निदिध्यासितव्य" इति ब्रुवद्भिरपि वेदान्तवादिभिनिवृत्तः केनापि जनेम याज्ञवल्क्यादिना न प्राप्त इति भावार्थः ।
अप्पा चरित्तवंतो दंसणणाणेण संजुदो अप्पा । सो झायन्वो णिच्चं पाऊणं गुरुपसाएण ॥६४॥
आत्मा चारित्रवान् दर्शनज्ञानेन संयुत आत्मा ।
स ध्यातव्यो नित्यं ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ।। ६४ ॥ ( अप्पा चरितवंतो.) आत्मा चारित्रवान् वर्तते आत्मात्मानमेवानुतिष्ठतीति कारपात् यस्य मुनेश्चारित्रे प्रीतिरस्ति स आत्मानमेवाश्रयत्विति भावार्थः । (दसणणाणेण संजुदो अप्पा ) दर्शनेन ज्ञानेन च संयुतः संयुक्तः, कोऽसौ ? आत्मा जीवतत्वं, अत्रापि स एव भावार्थः-यस्य मुनेदर्शने प्रेम वर्तते. ज्ञाने वानुरागो. ऽस्ति स मुनिरात्मानमेवाश्रयतु तवयमपि तत्रैव यस्मात् । (सो शायव्वो णिच्चं ) स आत्मा ध्यातव्यो नित्यं सर्वकालं । रलानां त्रयस्योपायभूतस्यात्मलाभे मोक्षलाभे वा प्रीतिमत इत्यर्थः । (गाऊणं गुरुपसाएण) गुरोनियन्याचार्यस्य शिक्षादीक्षाचारवाचनादेश्च कतुः प्रसादेन कारुण्येन । अयं वस्तुस्वभावो वर्तते यदाचार्यप्रसन्नतयात्मलाभो भवति तद्विराधने सत्यात्मा न स्फुटीभवति । तथा चोक्तं
से आत्मा दृष्टवा, श्रोतव्य, अनुमन्तव्य और निदिध्यासितव्य है इस प्रकार गृह जंजाल से निवृत्त वेदान्तवादी कहते अवश्य हैं परन्तु याज्ञ. वल्क्य आदि कोई भी उसे प्राप्त नहीं कर सका ॥ ६३ ॥
गाथार्थ-आत्मा चारित्र से सहित है, आत्मादर्शन और ज्ञान से युक्त है इस प्रकार गुरु के प्रसाद से जानकर उसका नित्य ही ध्यान करना चाहिये ॥ ६४ ॥
विशेषार्थ--आत्मा चारित्रवान् है इसलिये जिस मुनिकी चारित्रमें प्रीति है वह आत्माका हो आश्रय करे। आत्मादर्शन और ज्ञान से सहित है इसलिये जिस मुनिका दर्शन और ज्ञान में अनुराग है वह आत्मा का आश्रय करे। गुरुका अर्थ निर्ग्रन्थाचार्य है। उसके प्रसाद से आत्मा को जानकर उसका निरन्तर ध्यान करना चाहिये। यह वस्तु का स्वभाव है कि जिस आचार्य की प्रसन्नता से आत्म लाभ होता है उसको विराधना आज्ञाभन करने पर आत्मा अच्छी तरह स्पष्ट नहीं होती। जैसा कि
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