Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभृते . [६. ५९कलुषयन्त्याः सत्वरजःसाम्यावस्थापरनामवत्याः सनातनव्यापिगुणाधिकृतः प्रकृतेः स्वरूपमवगच्छति तदायामयगोलकानलतुल्यवर्गस्य वोधबद्वहुधानकसंसर्गस्य सति विसर्गे सकलज्ञानज्ञेयसम्बन्धवैकल्यं कैवल्यमवलम्बते तदा दृष्टुः स्वरूपेऽवस्थानं मुक्तिरिति कापिलाः विवदन्तः प्रतिवक्तव्याः--
कपिलो यदि वांछति वित्तिमचिति सुरगुरुगीगुफेष्वेष पतति ।
चैतन्यं वाह्यग्राह्यरहितमुपयोगि कस्य वद तत्र विदित ॥१॥ तवरहियं ज णाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं ॥५९॥
तपोरहितं यत् ज्ञानं ज्ञानवियुक्तं तपोऽपि अकृतार्थं । तस्मात् ज्ञानतपसा संयुक्तः लभते निर्वाणम् ॥५९॥
होता है तब यह स्फटिक के समान स्वच्छ आनन्द रूप आत्मा को सुख । दुःख तथा मोह के परिवर्तनों और महत् तथा अहंकार की विवों से कलुषित करने वाली सत्व और रजोगुण की साम्यवस्था रूप दूसरे नाम से युक्त प्रकृति के स्वरूप को समझ लेता है तब लोहे के गोलों में जिस प्रकार अग्निका सम्बन्ध तन्मयके समान जान पड़ता है उसी प्रकार ज्ञान के साथ आत्मा का तन्मय सम्बन्ध होनेसे आत्मा ज्ञानमय जान पड़ती है। परन्तु जब वह पर पदार्थों का सम्बन्ध यहाँ तक कि ज्ञान ज्ञेय सम्बन्धी समस्त विकल्प भी विलीन हो जाता है और पुरुष कैवल्य अर्थात् मात्र अपने आपका अवलम्बन करने लगता है तब. दृष्टा पुरुष जो अपने स्वरूपमें अवस्थित रहता है उसे मुक्ति कहते हैं । इस प्रकार विवाद करते हुए सांख्योंके प्रति यों कहना चाहिये
कपिलो--कपिल यदि अचेतन प्रधान में ज्ञान मानता है तो वह भी चार्वाकों के वचन जाल में फंसता है, अर्थात् जिस प्रकार चार्वाक अचेतन भूत चतुष्टक से चेतन की उत्पत्ति मानता है उसी प्रकार सांख्य की भी अचेतन प्रधान से चेतन की उत्पत्ति इसके उत्तर में यदि सांख्य कहता है कि मैं चैतन्य को तो मानता है परन्तु उसे बाह्य पदार्थों के ग्रहण से विमुख मानता हूँ। इसके उत्तर में कहना यह है कि हे प्रख्यात पुरुष ! बाह्य पदार्थों के ग्रहण से विमुख चैतन्य किसके उपयोग आता है तुम्ही बताओ।
गाथार्थ-जो ज्ञान तपसे रहित है वह व्यर्थ है और जो तप ज्ञानसे १. वंदत ।
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