Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-६. ६० ]
मोक्षप्राभृतम् ( तवरहियं जं गाणं ) तपोरहितं यज्ज्ञानं तदकृतार्थमिति सम्बन्धः । ( णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो) ज्ञानवियुक्तं ज्ञानरहितं अज्ञानं तपोऽपि अकृतार्थ मोक्षं न साधयति । ( तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं) तस्मात्कारणात् ज्ञानतपसा ज्ञान च तपश्च ज्ञानतपः समाहारो द्वन्द्वस्तेन ज्ञानतपसा। अथवा ज्ञानेनोपलक्षितं तपो ज्ञानतपस्तेन तथोक्तेन संयुक्तो मुनिर्लभते निर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षमित्यर्थः। तथा चोक्तं--
मान्यं ज्ञानं तपोऽहोनं ज्ञानहोनं तपोऽहितं ।
द्वाभ्यां युक्तः स देवः स्याद्विहीनो गणपूरणः ॥१॥ धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं । णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं गाणजुत्तो वि ॥६०॥ ध्रुवसिद्धिस्तीर्थंकरः चतुष्कज्ञानयुतः करोति तपश्चरणम् ।
ज्ञात्वा ध्रुवं कुर्यात् तपश्चरणं ज्ञानयुक्तोपि ॥६०।। (धुवसिद्धी तित्थयरो) ध्रुवसिद्धिरवश्यं मोक्षगामी, कोऽसौ ? तीर्थंकरः तीर्थकरपरम देवः । (चउणाणजुदो करेइ तवयरणं ) दीक्षानन्तरमेवोत्पन्नमनःपर्ययज्ञानः
रहित है वह भी व्यर्थ है, इसलिये ज्ञान और तपसे युक्त पुरुष ही निर्वाण को प्राप्त होता है ।।५९॥
विशेषार्थ-तप रहित ज्ञान अकार्यकारी है, और ज्ञान रहित तप भी अकार्यकारी है अर्थात् मोक्षका साधक नहीं है इसलिये ज्ञान और तप अथवा ज्ञान से उपलक्षित तप से सहित मुनि ही सर्व कर्मरूप रूप मोक्षको प्राप्त होता है । जैसा कि कहा है.. मान्यं -तपसे अहीन अर्थात् सहित ज्ञान ही मान्य है--आदरणीय है और ज्ञान से हीन तप अहित है-कर्म बन्ध का कारण होने से अहितकारी है। जो मुनि ज्ञान और तप दोनोंसे युक्त है वह देव हो जाता है अर्थात् घाति चतुष्क का क्षय कर अरहन्त बन जाता है और जो दोनों से रहित है वह मात्र संघकी पूर्ति करता है अर्थात् संघ को संख्या बढ़ाता है, आत्मकल्याण नहीं करता है |॥१॥ ___ गाथार्थ-जो ध्रुव सिद्धि है-अर्थात् जिन्हें अवश्य ही माक्ष प्राप्त होना है तथा जो चार ज्ञानों से सहित हैं ऐसे तीर्थंकर भगवान् भी तपश्चरण करते हैं ऐसा जानकर ज्ञान युक्त पुरुष को तपश्चरण करना चाहिये ॥६०॥
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