Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभूते
[ ६.५१
जह फलिहमणि विसुद्ध परदव्वजुदो हवेइ अण्णं सो । तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्ण विहो ॥५१॥
यथा स्फटिकमणिः विशुद्धः परद्रव्ययुतो भवति अन्यः सः । तथा रागादिवियुक्तः जीवो भवति स्फुटमन्यान्यविधः ॥ ५१ ॥
( जह फलिहमणि विसुद्धो ) यथा येन प्रकारेण स्फटिकमणिः स्वभावेन विशुद्धो निर्मलो वर्तते । ( परदव्वजुदो हवइ अण्णं सो) परद्रव्येण जपापुष्पादिना युतः, अण्णं —– अन्याऽन्यादृशो भवति । ( तह रागादिविजुत्तो ) तथा तेनैव स्फटिकमणिप्रकारेण रागादिभिर्विशेषेण युक्तः स्त्र्यादिरागयुतो रागादिमान्
[ इस गाथा का भाव प्रवचनसार के
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो सम्मोति णिदिट्ठो । मोहक्खोह विहिणो परिणामो अप्पणो हु समो ।
गाथाके समान जान पड़ता है अर्थात् निश्चय से चारित्र का अर्थ धर्म है, धर्मका अर्थ सम परिणाम है और समपरिणाम का अर्थ रागद्वेष से रहित आत्माका अभिन्न परिणाम है परन्तु संस्कृत टीकाकार ने दूसरा ही भाव प्रदर्शित किया है जो ऊपर स्पष्ट किया गया है । ]
गाथार्थ - जिस प्रकार स्फटिक मणि स्वभावसे विशुद्ध अर्थात् निर्मल है परन्तु पर द्रव्य से संयुक्त होकर वह अन्य रूप हो जाता है उसी प्रकार यह जीव भी स्वभावसे विशुद्ध है - अर्थात् वीतराग है परन्तु रागादि विशिष्ट कारणों से युक्त होने पर स्पष्ट ही अन्य अन्य रूप हो जाता है ।। ५१ ।।
विशेषार्थ - जिस प्रकार स्वभावसे स्वच्छ स्फटिक मणि जपापुष्प आदि के सम्बन्ध से लाल, पीला आदि अन्य रूप हो जाता है उसी प्रकार स्वभाव से स्वच्छ — वीतराग जीव रागादि के द्वारा विशिष्ट रूप से युक्त होकर अन्य अन्य प्रकार का हो जाता अर्थात् स्त्रियोंके योग में रागी शत्रुओंके योग में द्वेषी और पुत्रादि जाता है।
है
के योग में मोही हो
( यहाँ गाथा का एक भाव यह भी समझ में आता है कि जिस प्रकार स्फटिक मणि स्वभाव से विशुद्ध है परन्तु पर पदार्थ के सम्बन्ध से वह
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