Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभृते
[५.६७वा अथवा श्रुतेनाकणितेन ज्ञानेन किं ? न किमपि, स्वर्गश्च मोक्षश्च न भवतीत्यर्थः । कथंभूतेन पठितेन श्रुतेन च ( भावरहिएण ) भावरहितेन । ( भावो कारणभूदो ) भाव आत्मरुचिः जिनसम्यक्त्वकारणभूतो हेतुभूतः । ( सायारणयारभूदाणं ) सागारानागारभूतानां श्रावकाणां यतीनां चेति तात्पर्य ।
दव्वेण सयलणग्गा णारयतिरिया य सयलसंघाया। परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता ॥६॥ द्रव्येण सकलनग्ना नारकतिर्यञ्चश्च सकलसंघाताः ।
परिणामेन अशुद्धा न भावश्रवणत्वं प्राप्ताः ॥६७|| ( दव्वेण सयलनग्गा) द्रव्येण बाह्यकारणेन सकलाः सर्वे जीवा नग्ना वस्त्रादिरहिताः। के ते, ( नारय ) नारकाः सप्ताधोभूमिस्थितचतुरशीतिशतसहस्रविलसंजातसत्वाः । ( तिरिया य) तिर्यंचश्च पशवो जीवा नग्ना एव भवन्ति । तथा ( सयलसंघाया ) नारकाणां तिरश्चों सर्वे समूहाः । अथवा सकलसंघाताः स्त्रीभिः सह मिलिताः कमनीयकामिनीभिरालिंगिताः सर्वे पुरुषसमूहा अपि द्रव्येण नग्ना निर्वस्त्रादिका भवन्ति । कथंभूतास्ते. (परिणामेण असुद्धा) परिणामेन मनोव्यापारेणाशुद्धा रागद्वेषमोहादिकश्मलिताः। (ण भावसवणत्तणं
है। इसके बिना शास्त्रों को पढ़ा भी जाय अथवा सुना भी जाय तो उससे क्या होता है ? अर्थात् स्वर्ग मोक्षकी प्राप्ति उसमें नहीं होती। यथार्थ में गृहस्थ-धर्म अथवा मुनिधर्मका मूल कारण भाव अर्थात् सम्यक्त्व ही है ॥६६॥ __गाथार्थ-द्रव्य अर्थात् शरीररूप वाह्य कारणकी अपेक्षा सभी जीव नग्न हैं। नारको और तिर्यंच तो समुदाय रूपसे नग्न ही रहते हैं परन्तु भावसे अशुद्ध हैं, अतः भाव श्रमणपनेको प्राप्त नहीं होते ॥६७।।
विशेषार्थ-मात्र वस्त्रादि बाह्य पदार्थोंके त्याग से ही श्रमण-पना प्राप्त नहीं होता किन्तु उसके साथ भाव-शुद्धिके होने पर ही होता है यह सिद्ध करते हुए आचार्य महाराज निर्देश करते हैं कि मात्र शरीरकी अपेक्षा तो सभी जीव नग्न हैं। पृथिवीके नीचे सात नरकोंके चौरासी लाख विलोंमें रहने वाले नारकी तथा समस्त तिर्यञ्च तो नियम से नग्न ही रहते हैं । और रति आदिके समय पुरुष भी नग्न रहते हैं परन्तु ये सब परिणामोंसे अशुद्ध हैं अर्थात् राग द्वेष मोह आदि विकारोंसे मलिन हैं, मतः नग्न होने पर भी भाव श्रमण को अर्थात् दिगम्बर मुनि अवस्थाको
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