________________
५९६
षट्प्राभूते
[६.३३( इय जाणिऊण जोई ) इतीदृशमर्थ ज्ञात्वा, कोऽसौ ? योगी ध्यानवान् मुनिः । ( ववहार चयइ सव्वहा सव्वं ) व्यवहारं त्यजति सर्वथा सर्व आत्मना सह एकलोलीभाव गते सति व्यवहारः स्वयमेव [ न ] तिष्ठति ( झायइ परमप्पाणं ) ध्यायति परमात्मानं–निजशुद्धबुद्ध कस्वभावे आत्मनि तल्लीनो भवति । (जह भणियं जिणवरिदेण ) यथा भणितं प्रतिपादितं जिनवरेन्द्रेण प्रियकारिणीप्रियपुत्रेण श्रीवीरवर्धमानस्वामिना।
पंचमहव्वयजुत्तो पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु। रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सया कुणह ॥३३॥ पञ्चमहाव्रतयुक्तः पंचसु समितिषु तिसृषु गुप्तिषु । । रत्नत्रयसंयुक्तः ध्यानाध्ययनं सदा कुरु ॥३३॥
(पंचमहन्वयजुत्तो) पंचमहाव्रतयुक्तो दयावान् सत्यवादी अदत्तादानविरतः सर्वस्त्रीसोदरः वस्त्रादिपरिग्रहरहितः दिवा एकवारं प्रत्युत्पन्न प्रासुकं भुक्तं शुद्ध शोधितं भुंजानः । ( पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु ) ईर्यायां युगान्तरविलोकगमनः आगमोक्तभाषानिपुणः, चर्मजलस्पृष्टभोजनपरित्यागी हिंगुसंवासितव्यंजनाभोजनः
विशेषार्थ-ऐसा जानकर ध्यानस्थ मुनि सब व्यवहार को सब प्रकार से छोड़ता है अर्थात् जब योगो आत्मा के साथ तन्मयी भावको प्राप्त होता है तब व्यवहार स्वयमेव नहीं ठहरता है तथा प्रियकारिणी-त्रिशला देवी के प्रियपुत्र श्री वर्धमान स्वामी ने जिस प्रकार कहा है उस तरह परमात्मा का ध्यान करता है ॥३२॥
गाथार्थ हे मुने! तू पांच महाव्रतों से युक्त होकर पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों में प्रवृत्ति करता हुआ रत्नत्रय से युक्त हो सदा ध्यान और अध्ययन कर ॥३३॥
विशेषार्थ हे जीव ! तू दयावान्, सत्यवादो, अदत्तादान से विरत, सब स्त्रियों के साथ सहोदर का व्यवहार करनेवाला, वस्त्रादि परिग्रह से रहित तथा दिन में एक बार प्रासुक, शुद्ध और शोधे हुए अन्न का आहार लेता हुआ पञ्चमहाव्रत का धारो हो। तदनन्तर पञ्चसमितियों और तोन गुप्तियोंका पालन करनेके लिये चलते समय एक युग प्रमाण भूमिको देखकर चलने वाला, आगमोक्त भाषा के बोलने में निपुण, चमड़े के बर्तन में रखे हुए जलसे छुए भोजन का त्यागो, होंगसे सुवासित शाक आदिका
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org