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षट्प्राभूते
[ ६. ३५-३६
सिद्धो सुद्धो आदा सव्वण्हू सव्वलोयदरसी य । सो जिणबह भणियो जाण तुमं केवलं जाणं ॥ ३५॥ सिद्धः शुद्धः आत्मा सर्वज्ञः सर्वलोकदर्शी च । स जिनवरैः भणित: जानीहि त्वं केवलं ज्ञानम् || ३५ ॥
( सिद्धो सुद्धो आदा ) सिद्ध आत्मोपलब्धिमान् । शुद्धः कर्ममलकलङ्करहितः, ईदृग्विध आत्मा अतति समयैकेन ऊर्ध्वं ब्रज्यास्वभावेन त्रिभुवनाग्र गच्छतीति आत्मा शुद्धबुद्धैकस्वभावः । ( सव्वण्हू सव्वलोयदरिसी य ) सर्वज्ञ: त्रैलोक्यालोक - स्वरूपज्ञायककेवलज्ञानसमुपेतः सर्वलोकदर्शी च सर्वशब्देनालोकाकाशो लभ्यते लोकशब्देन षड्द्रव्याघारवत्त्रिभुवनमुच्यते तद्वयं अवलोकयितुं शीलमस्येति सर्वलोकदर्शी । चकार उक्तविशेषणसमुच्चयार्थः तेनानन्तवीर्यानन्तसौख्यवदादिरनन्तगुणोऽपि गृह्यते । ( सो जिणवरेह भणिओ ) स एवं गुणविशिष्ट आत्मा जिनवरैस्तीर्थंकरपरमदेवैर्भणितः प्रतिपादितः । एव गुणविशिष्ट मात्मानं ( जाण तुम केवलं गाणं ) जानीहि त्वं केवलं ज्ञानं, आत्मा खलु केवलं ज्ञानं-- अभेदनयत्वात् ज्ञानमेवात्मानं जानीहि ।
रयणत्तयं पि जोई आराहइ जो हु जिणवरमएण । सो शायदि अप्पाणं परिहरदि परं ण संदेहो ॥३६॥ रत्नत्रयमपि योगी आराधयति यः स्फुटं जिनवरमतेन । स ध्यायति आत्मानं परिहरति परं न सन्देहः ॥ ३६ ॥
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गाथार्थ - जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ वह आत्मा सिद्ध है, शुद्ध है, आत्मा है, सर्वज्ञ है, सर्वलोक -दर्शी है तथा केवलज्ञानरूप है, ऐसा तुम जानो || ३५ ॥
विशेषार्थ - जिनेन्द्र देवने जिस आत्माका प्रतिपादन किया है वह सिद्ध है - आत्मोपलब्धि से युक्त है। शुद्ध है - कर्ममल कलंक से रहित है । आत्मा है—ऊर्ध्व-गमन स्वभाव होनेसे एक समय में त्रिभुवन के अग्रभाग तक गमन करता है अथवा शुद्धबुद्धक स्वभाव वाला है । सर्वज्ञ है - तीनों लोक तथा अलोक को जानने वाले केवलज्ञान से सहित है । सर्वलोकदर्शी है - अलोकाकाश और लोकको देखने वाला है । तथा अभेदनय से केवलज्ञान रूप है। चकार से अनन्तवीर्यं तथा अनन्त सुख सम्पन्ता आदि अनन्त गुणोंसे युक्त है, ऐसा है जीव ! तू जान ॥ ३५ ॥
गाथार्थ - जो योगी - ध्यानस्थ मुनि जिनेन्द्रदेव के मतानुसार रत्नत्रय
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