________________
६००
षट्प्राभृते
[ ५.३८
यं ) यत्तु भूतं, पश्यति तद्दर्शनं ज्ञेयं ज्ञातव्यं आत्मैव पश्यति तेन कारणेनात्मैव दर्शनं । अत्रापि पूर्ववत् कर्तरि युट् । ( तं चारितं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ) तच्चारित्रं भणितं प्रतिपादितं तत्कि ? परिहारः पुण्यपापानां आत्मैव पुण्यं पापं च परिहरति तेनात्मैव चारित्रं । "पापक्रियाविरमणं चरणं किल" इति वचनात् । तथा चोक्तं
न किंचित् पापाय प्रभवति न वा पुण्यत तये प्रसिद्धेद्धां शुद्धि समधिवसतो ध्वंसविधुरां । भवेत् पुण्यायैवाखिलमपि विशुद्धयंगमपरं मतं पापायैवेत्युदितमवताद्वो मुनिपतेः ॥ १ ॥ मुनिपतिरत्र विद्यानन्दी समन्तभद्रो वा मंतव्यः । अण्णं च - अन्यच्च वचनमस्तीति भगवंतो निरूपयन्ति - तच्चरुई सम्मतं तच्चग्गहणं च हवइ सगाणं । चारितं परिहारो पयंपियं जिणर्वारदेहि ॥ ३८ ॥ तत्वरुचिः सम्यक्त्वं तत्वग्रहणं च भवति संज्ञानम् । चारित्रं परिहारः प्रजल्पितं जिनवरेन्द्रः ॥ ३८ ॥
पूर्वकी तरह कर्तृवाच्य में युट् प्रत्यय जानना चाहिये पुण्य और पापका जो परित्याग करता है वह चारित्र है। इस व्युत्पत्ति के आधार पर आत्मा ही पुण्य और पाप का परित्याग करता है अतः आत्मा हो चारित्र है । यथार्थ में गुण और गुणी में अभेद की विवक्षा से यहां गुणो-आत्मा को गुण- ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप कहा गया है ।
जैसा कि कहा है
न किंचित् - प्रसिद्ध देदीप्यमान तथा विनाश से रहित शुद्धिको प्राप्त होने वाले साधुके कोई वस्तु न तो पापके लिये होती है और न कोई वस्तु पुण्य के लिये होती है । उसका जितना भी विशुद्धिका अङ्ग है वह सब पुण्यके लिये हो है और जितना अविशुद्धि का अङ्ग है वह सब पापके लिये ही है, इस प्रकार मुनिपति मुनीन्द्र का कथन तुम सबकी रक्षा करे ।
यहाँ मुनिपति शब्द से विद्यानन्दी अथवा समन्तभद्रको समझना चाहिये ||३७||
आगे और भी इसी प्रकारका वचन है यह कुन्दकुन्द भगवान् कहते हैंगाथार्थ - तत्वरुचि होना सम्यग्दर्शन है, तत्वज्ञान होना सम्यग्ज्ञान
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org