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मोक्षप्रामृतम्
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( रयणत्तयं पि जोई ) रत्नत्रयमपि योगी ध्यानवान् मुनिः, न केवलं गुणिनमात्मानं तद्गुणं रत्नत्रयमपीत्यपेरर्थः । ( आराहइ जो हु जिणवरमएण ) आराघयति यः संयमी हुस्फुटं जिनवरमतेन सर्वज्ञवीतराग कथितमार्गेण । ( सो शायद अप्पाणं ) स योगी ध्यायति चितयति, कं ? आत्मानं सहजानन्दस्वभावं जीवतत्वं । चकाराद्य आत्मा, तद्रत्नत्रयं यद्रत्नत्रयं स आत्मा गुणगुणिनोरभेदनयात् ( परिहरदि पर ण संदेहो ) परिहरति परित्यजति परं पुद्गलाद्यचेतनद्रव्यं, न सन्देहोऽत्रार्थे संशयो नास्ति ।
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कह आदे रयणत्तयं हवदि तं जहा -
कथमात्मनि रत्नत्रयं भवतीति चेत् ? यद्यथा तदेव निरूपयतिजं जाणइ तं गाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं । तं चारितं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ॥ ३७॥ यज्जानाति तज्ज्ञानं यत् पश्यति तच्च दर्शनं ज्ञेयम् । तच्चारित्रं भणितं परिहारः पुण्यपापानाम् || ३७ ॥
( जं जाणइ तं गाणं ) यज्जानाति तज्ज्ञानं आत्मैव जानाति तेनात्मैव ज्ञानमित्यर्थः। “कृत्ययुटोऽन्यत्रापि” इति वचनात् कर्तरि युट् । ( जं पिच्छइ तं च दंसण की आराधना करता है वह आत्मा का ध्यान करता है और पर-पदार्थ का परित्याग करता है इसमें संदेह नहीं है || ३६ ||
विशेषार्थ - जो ध्यानारूढ मुनि, सर्वज्ञ वीतराग द्वारा कथित मार्ग से न केवल गुणी - आत्मा की आराधना करता है किन्तु आत्मगुण - रत्नत्रय की भी आराधना करता है वह सहजानन्द स्वभाव जीवतत्व का ध्यान करता है तथा पुद्गलादि अचेतन द्रव्योंका परित्याग करता है इसमें संशय नहीं है । यहाँ गुणी और गुणों में अभेदनय की अपेक्षा से कहा गया है। कि जो आत्मा है वही रत्नत्रय है ॥ ३६ ॥
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आगे आत्मा में रत्नत्रय किस प्रकार रहते हैं यही निरूपण करते हैं'गाथार्थ - जो जानता है वह ज्ञान है, जो देखता है - सामान्य अवलोकन करता है वह दर्शन है और पुण्य पापका परित्याग है वह चारित्र है ।। ३७ ।।
विशेषार्थ - 'जो जाने सो ज्ञान है' इस व्युत्पत्ति से आत्मा जानता है अतः आत्मा ही ज्ञान है । यहाँ 'कृत्ययुटोऽन्यत्रापि' अर्थात् कृत्य संज्ञक तथा युट् प्रत्यय कर्म और भाव के सिवाय अन्यवाच्य - कर्तृवाच्य में भी प्रत्यय होते हैं इस वचन से कर्तृवाच्य में युटु प्रत्यय हुआ है । इसी तरह जो देखे वह दर्शन है इस व्युत्पत्ति से आत्मा ही दर्शन है। यहाँ भी
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