Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-६. ३४ ]
मोक्षप्राभृतम्
अजिनसंगघृततैलपरिहारी, दृष्टमृष्टोपकरणग्रहणनिक्षेपः प्रासुकारुद्ध भूमिमलमूत्रव्युत्सर्जनकुशलः, अपध्यानमनोनिषेधी, मौनवान्, कूर्मवत्संकोचितकरचरणादिकाय: । ( रयणत्तयसंजुत्तो ) मिथ्यात्व कंदकुद्दालः सम्यग्ज्ञानानुशोलनकुशलः सच्चरित्रपवित्रगात्रः । ( झाणज्झयणं सया कुणह) ध्यानाध्ययनं सदा सर्वकालं कुरु त्वं हे जीव ! इति तात्पर्यार्थः ।
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रयणत्तयमाराहं जीवो आराहओ मुणेयव्वो । आराहणाविहाणं तस्स फलं केवलं गाणं ॥ ३४ ॥
रत्नत्रयमाराधयन् जीव आराधको मुनितव्यः । आराधनाविधानं तस्य फलं केवलं ज्ञानम् || ३४॥
( ' रयणत्तयमाराहं ) रत्नत्रयमासघयन् । ( जीवो आराहबो मुणेयब्वो ) जीव आत्मा आराधको मुनितव्यो ( ? ) ज्ञातव्यः । ( आराहणाविहाणं ) इदमाराधनाविधनं विधिः । ( तस्स फलं केवलं गाणं ) तस्याराधनाविधानस्य, किं फलं केवलं ज्ञानं अनन्तकेवलज्ञानमिति अनन्तचतुष्टयं ।
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न खानेवाला, चमड़े के पात्र में रखे हुए घी तेल आदिका परित्याग करने बाला, देखभालकर कोमल उपकरण-पिच्छो से शुद्ध वस्तु को धरने उठाने बाला, प्रासुक तथा रोक टाक से रहित भूमि में मलमूत्र छोड़ने में कुशल, अपध्यान से मन को हटाने वाला, मौनवान् तथा कछुए के समान हस्त पादादिके कार्यको कछुए के समान संकोचित करनेवाला बन तथा मिथ्यात्वरूपी कन्दको खोदने के लिये कुदाली स्वरूप, सम्यग्ज्ञानके अनुशोलनमें • अत्यन्त कुशल और सम्यक् चारित्र से पवित्र शरीर होकर अर्थात् रत्नत्रय सें युक्त होकर सदा ध्यान और अध्ययन कर ||३३||
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गाथार्थ - रत्नत्रय की आराधना करनेवाले जोवको आराधक मानना चाहिये, आराधना करना सो आराधना है और उसका फल केवलज्ञान है ॥ ३४॥
विशेषार्थ - इस गाथा में आराधक, आराधना और आराधना का फल बतलाते हुए कहा है कि जो मुनि रत्नत्रय की आराधना करता है वह आराधक है, आराधनाका करना आराधना कहलाती है तथा केवलज्ञान उस आराधनाका फल है ॥ ३४ ॥
रगमतयमाराहं अयं पाठः क पुस्तके नास्ति, ख. पुस्तकात् संयोजितः ।
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