Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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५२२
बटुप्राभूते
[ ५.१२८
नमस्कारेत्र नमो तु हास्येन । कथंभूतानां तेषां (पणट्ठमायाणं ) प्रणष्टा विनाश प्राप्ता माया परवंचना येषां ते प्रणष्टमायास्तेषां ।
इड्मितुलं विउव्विय किण्णरकिपुरिसअमरखयरेहि । तेहि विण जाइ मोहं जिणभावणभाविओ धीरो ॥ १२८॥
ऋद्धिमतुलां विकृतां किनरकिम्पुरुषामरखचरः । तैरपि न याति मोहं जिनभावनाभावितो धीरः ॥ १२८॥
( इडिमतुलं विउन्त्रिय ) ऋद्धिः पूर्वोक्तलक्षणा, अतुला अनुपमा, विकुर्विता विक्रियाकृता निजतद्भवान्यभवतपोमहिमसंजाता । तथा ( किण्णरकिपुरिस अमरखयरेहि ) किन्नरैः, किम्पुरुषः अमरैः कल्पवासिप्रभृतिभिश्च विहिता ऋद्धिः । ( तेहि विण जाइ मोहं ) तैरपि किन्नरकिम्पुरुषामरखचरैरपि मोहं न याति लोभ न गच्छति । कोसी, ( जिणभावणभाविओ धीरो ) जिनभावनया निर्मलसम्यक्त्वेन भावितो वासितो धीरो योगीश्वरः । ध्येयं प्रति धियमीरयतीति धीरः ।
हैं, जो शुद्ध आत्म-परिणाम अथवा जिन सम्यक्त्व से सहित हैं तथा जिनका मायाचार --पर-प्रतारणाका भाव नष्ट हो चुका है उन भाव-लिंगी मुनियों को मेरा मनवचन कायसे निरन्तर नमस्कार हो ॥ १२७॥
गाथार्थ - मुनिको तप के माहात्म्य के अतुल ऋद्धियाँ स्वयं प्राप्त होती हैं और किन्नर किम्पुरुष स्वर्ग के देव तथा विद्याधर भी विक्रिया से अनेक ऋद्धियाँ दिखलाते हैं परन्तु जिनभावना से वासित घोर वीरदृढ़ श्रद्धानी मुनि उन सभी से मोह को प्राप्त नहीं होता है || १२८ ||
विशेषार्थ - अपने उसी भव तथा अन्य भवके तपके माहात्म्य से ' मुनिको अनेक अनुपम ऋद्धियाँ स्वयं प्राप्त होती हैं तथा किन्नर, किम्पुरुष, कल्पवासी देव और विद्याधर भी विक्रिया शक्ति से अतुल्य ऋद्धियाँ दिखलाते हैं परन्तु जो जिन-भावना अर्थात् निर्मल सम्यक्त्व से वासित है ऐसा धीर मुनि उन सबसे मोहको प्राप्त नहीं होता अर्थात् लोभके वशीभूत नहीं होता जो ध्येय - चिन्तनोय पदार्थ की ओर अपनी धी बुद्धि को प्रेरित करे वह धीर है "ध्येयं प्रति घियमीरयतीति धीरः " तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि मुनि अपने स्वरूप में सदा निःशंक रहता है, वह बाह्य प्रलोभनों में नहीं आता ॥ १२८ ॥
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