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मोक्षप्राभृतम्
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( जं जाणिऊण जोई ) यं अथं आत्मतत्वं ज्ञात्वा हे योगिन् ! ( जो अत्थो जोऊण अणवरयं (यं ) ) अथं तत्त्वं, जोइऊण — दृष्ट्वा ज्ञानेन साक्षाद्वीक्ष्य योगी ध्यानवान् मुनिः । ( अव्वाबाहमणंतं ) अन्याबाधं बाधारहितं, अनन्तमविनश्वरं । ( अणोवमं हवइ णिव्वाणं) अनुपमं उपमारहितं भवते प्राप्नोति । "भूप्राप्तावात्मनेपदी" इति वचनात् । किं ? निर्वाणं शुद्धसुखं मोक्षस्थानं ।
उक्तं च-
'जन्मजरामयमरणैः शोकदु : खैर्भयैश्च परिमुक्तं ।
निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यं ॥ १ ॥ तिपयारो सो अप्पा परभितरबाहिरो दु हेऊणं ।
तत्थ परो शाइज्जइ अंतोबाएण चयहि बहिरप्पा ॥ ४ ॥ त्रिप्रकारः स आत्मा परमन्तो बहिः तु हित्वा ।
तत्र परं ध्यायते अन्तरुपायेन त्यज बहिरात्मानम् ॥ ४ ॥ (तिपयारो सो अप्पा ) त्रिप्रकारः स आत्मा त्रिविधः । ( पर्शभतरवाहिरो दु हेऊणं ) परमात्मा-अन्तरात्मा बहिरात्मा चेति । तत्र बाहिरो दु हेऊणं बहिरा -
विशेषार्थ - दूसरी गाथा की 'वोच्छ' क्रिया के साथ सम्बन्ध जोड़ते हुए कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि मैं उस परमात्म-तत्त्वका कथन करूंगा जिसको जानकर तथा जिसका निरन्तर अवलोकन कर योगी - ध्यानस्थ मुनि, अव्यावाध - बाधा रहित अनन्त - अविनाशी और अनुपम - उपमारहित निर्वाण - शुद्ध सुख रूप मोक्ष स्थानको प्राप्त होते हैं । कहा भी है
जन्मजरामय - जो जन्म जरा रोग मरण शोक दुःख और भय से रहित है, शुद्ध सुख से युक्त है तथा नित्य है ऐसा निर्वाण - मोक्ष निःश्रेयस कहलाता है ।
गाथा में आया हुआ 'हवइ' पद भूप्राप्तो धातुका रूप है । भूप्राप्तावात्मनेपदी. इस कथन से उसका आत्मनेपद में प्रयोग होता है ॥ ३ ॥
गाथार्थ - वह आत्मा परमात्मा, अभ्यन्तरात्मा और बहिरात्मा के भेद से तीन प्रकार का है। इनमें से बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के उपाय से परमात्मा का ध्यान किया जाता है । है योगिन् ! तुम बहिरात्मा का त्याग करो ||४||
१. रत्नकरण्ड श्रावकाचारे ।
२. 'परमंतर बाहिरो दु देहोणं' इति पाठ: पं० जयचन्द्र वचनिकायां स्वीकृत: सुष्ठुः च प्रतिभाति ।
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