________________
-६.२]
मोक्षप्रामृतम् (णाणमयं अप्पाणं ) ज्ञानमय आत्मा । ( उवलद्ध' जेण प्रडियकम्मेण ) उपलब्धो येन क्षरितकर्मणा । (चइऊण य परदव्वं ) त्यक्वा च परद्रव्यं शरीरं कर्म च परित्यज्य नमो नमः-पुनः पुनर्नमः । तस्य देवस्य तस्मै देवायेति भावार्थः ।
गमिऊण य तं देवं अणंतवरणाणसणं सुद्ध। 'वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ॥२॥
नत्वा च तं देवं अनन्तवरज्ञानदर्शनं शुद्ध।
वक्ष्ये परमात्मानं परमपदं परमयोगिनाम् ॥ २॥ (णमिऊण य तं देवं) नत्वा च तं देवं सर्वज्ञवीतरागं । कथंभूतं देवं, (अणंतवरणाणदंसणं सुद्ध) अनन्तवरज्ञानदर्शनं शुद्धं अनन्तज्ञानमनन्तदर्शनमनन्तवीर्यमनन्तसौख्यमित्यर्थः, शुद्ध घातिकर्मसंघातनेन निर्मलस्वरूपं अष्टादशदोषरहितमित्यर्थः । (वोच्छ परमप्पाणं ) वक्ष्यामि कथयिष्यामि । कः कर्ता ? अहं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः, के वक्ष्ये ? परमात्मानं शुद्धनयेन परमात्मानं अर्हत्सिबसमानं । कथंभूतं परमात्मानं,
विशेषार्ष-जिन्होंने ज्ञानावरणादि कर्मोंका आत्यन्तिक क्षयकर मानस्वरूप आत्मा को प्राप्त कर लिया है तथा कर्म, नोकर्म रूप परव्यका त्याग कर दिया है, उन 'सिद्ध भगवान् को बार-बार नमस्कार
गावार्थ-अनन्त उत्कृट ज्ञान तथा अनन्त उत्कृष्ट दर्शन से युक्त, निर्मल स्वरूप उन सर्वज्ञ वीतराग देवको नमस्कार कर मैं परम योगियों
के लिये परम पद रूप परमात्मा का कथन करूंगा ॥२॥ . १. विशेषा-इस गाथा में श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने मङ्गल और प्रतिमा पाक्य दोनों का उल्लेख करते हुए कहा है कि में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन ज्या सहचर सम्बन्ध से अनन्तवीर्य और अनन्त-सुख से युक्त एवं पातिया कोका नाश होनेसे निर्मल स्वरूप अर्थात् अठारह दोषों से रहित
वीतराग देवको नमस्कार कर मुनियों के लिये उस परमात्मा कामहन्त सिद्ध परमेष्ठी का निरूपण करूंगा जो कि परम पद रूप है-उत्कृष्ट परस्प है । अर्थात् अरहन्त की अपेक्षा इन्द्रादि देव, नरेन्द्र आदि मनुष्य और गणधरादि महामुनियोंसे संयुक्त समवशरणरूप पद-स्थानसे मण्डित ईबोर सिद्धिकी अपेक्षा त्रिलोकाग्र रूप पद-स्थान पर समासीन हैं । १. युच्छ कचित् । १. वहां भाव मोक्ष तो बरहंत के, अर द्रव्य भाव करि दो प्रकार सिक परमेष्ठी
है यातें बोळकू नमस्कार जानना । (पं० जयचन्द्र जी कृत वचनिका )।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org