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-५. १६३ ] भावप्राभृतम्
५५९ सुणइ भावइ य ) आसन्नभव्यो जीवः पठति गुर्वग्रेऽनुशीलयति अभ्यस्यति, सुणइ एतदर्थमाकर्णयति, भावइ-श्रुत्वा श्रद्दधाति । ( सो पावइ अविचलं ठाणं ) स आसन्नभव्यो मुनिपुंगवः, प्राप्नोति लभते, अविचलं निश्चलं, स्थानं मोक्षपदमिति सिद्धम् । ___ इति श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचार्यलाचार्यगृध्रपिच्छाचार्यनामपंचकविराजितेन श्रीसीमन्धरस्वामिसम्यग्बोधसंबोधितभव्यजनेन श्रीजिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृतभावनाग्रन्थे सर्वमुनिमण्डलीमण्डितेन कलिकालगौतमस्वामिना श्रीमल्लिभूषणेन भट्टारकेणानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानितेनोभयभाषाकविचक्रवर्तिना श्रीविद्यानन्दिगुर्वन्तेवासिना श्रीदेवेन्द्रकोतिप्रशिष्येण सूरिवर श्रीश्रुतसागरेण विरचिता भावप्राभृतटीका परिसम्पूर्णा'
है वही श्रेष्ठ मुनि अविचल स्थान को प्राप्त होता है अर्थात् मोक्ष जाता
- इस प्रकार श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य वक्रग्रोवाचार्य, एलाचार्य, गृद्धपिच्छाचार्य, इन पांच नामोंसे सुशोभित श्री सोमन्धर स्वामीके सम्यग्ज्ञान से भव्यजीवों को संबोधित करने वाले श्री जिनचन्द्र सूरि भट्टारक के पट्ट के आभरण-भूत कलिकाल सर्वज्ञ श्री कुन्दकुन्दाचार्य के द्वारा विरचित षट्प्राभृत भावना नामक ग्रन्थ में समस्त मुनि मण्डली से सुशोभित कलिकाल के गौतम स्वामी श्री मल्लिभूषण भट्टारक के द्वारा अनुमत सकल विद्वज्जन समाज के द्वारा सम्मानित उभय भाषा के कवियों में प्रमुख श्री विद्यानन्दि गुरुके शिष्य और श्री देवेन्द्रकीति के प्रशिष्य सूरिवर श्री श्रुतसागर के द्वारा विरचित यह भावप्राभूत की टीका समाप्त हुई।
१. परिसमाप्ताम।
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