________________
-५. १६२ ]
भावप्राभृतम्
"
( ते मे तिहुवणमहिया ) ते जगत्प्रसिद्धाः मे मम श्री कुन्दकुन्दाचार्यस्य, त्रिभुवनमहितास्त्रैलोक्यपूजिताः । ( सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिच्चा) सिद्धा मुक्तिस्त्रीवल्लभाः, शुद्धाः कर्ममलकलंकरहिताः, निरंजना निरुपलेपाः, नित्याः शाश्वताः । ( बिंतु वरभावसुद्धि ) ददतु प्रयच्छन्तु, वरभावशुद्धि विशिष्टपरिणामशुद्धि । कस्मिन्, ( दंसणणाणे चरिते य ) सम्यग्दर्शने सम्यग्ज्ञाने सम्यक्चारित्रे चेत्यर्थः ।
कि जंपिएण बहुणा अत्थो धम्मो य काममोक्खो य । अण्णेवि य वावारा भावम्मि परिट्टिया सव्वे ॥ १६२॥ कि जल्पितेन बहुना अर्थो धर्मश्च काममोक्षश्च ।
"
अन्येपि च व्यापारा भावे परिस्थिताः सर्वे ।। १६२ ।। ( कि जंपिएण बहुणा ) बहुना प्रचुरतरेण, जल्पितेन कि ? न किमपि । ( अत्यो धम्मो य काममोक्खो य ) अर्थो धनं, धर्मो यति श्रावकगोचरः कामः पंचेन्द्रियसुखदायिनी इष्टवनिता तस्या भोगः, मोक्षः सर्वकर्मक्षयलक्षणः । ( अण्णे वि य वावारा) अन्येऽपि च व्यापारा विद्यादेवतासाघनादय: । ( भावम्मि परिट्ठिया सब्वे ) भावे शुद्धपरिणामे परिस्थिता भावाधीना भवन्तीति भावार्थ: । उक्तं च
नित्य हैं, वे जगत्प्रसिद्ध सिद्धभगवान् हमारे दर्शन ज्ञान और चारित्र में उत्कृष्ट भाव शुद्धिको प्रदान करें ।। १६१ ॥
विशेषार्थ—कुन्दकुन्द स्वामी इष्ट प्रार्थना के रूप में कहते हैं कि जो तीन लोकके द्वारा पूजित हैं, कर्ममल कलंक से रहित होने के कारण शुद्ध हैं, भाव कर्म से रहित होने के कारण निरञ्जन हैं और नित्य हैं - शाश्वत हैं - सादि अनन्त पर्याय से युक्त हैं वे जगत्प्रसिद्ध सिद्धपरमेष्ठी हमारे दर्शन ज्ञान और चारित्रमें उत्कृष्ट भावशुद्धिको करें ।। १६१ ॥
५५७
गाथार्थ - अधिक कहने से क्या ? धर्म अर्थ काम और मोक्ष तथा अन्य जितने व्यापार हैं वे सब भाव में ही - परिणामों की विशुद्धता में ही स्थित हैं ।। १६२ ॥
विशेषार्थ - आचार्य कहते हैं कि अधिक कहने से क्या लाभ है ? अर्थ - धन, धर्म-मुनि धर्म, श्रावक धर्म, काम - पञ्चेन्द्रिय सम्बन्धी सुख देने वाली इष्ट स्त्रीका भोग और मोक्ष सर्व कर्म क्षय तथा विद्या देवता का साधन करना आदि सभी कार्य शुद्ध परिणामों पर निर्भर हैं इसलिये परिणामों की सुनता पर ध्यान देना चाहिये। कहा भी है
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org