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षट्प्राभृते
[५] १६०-१६१
( चारणमुणिरिद्धीओ ) चारणमुनीनां आकाशगामिनामृषीणां ऋद्धी: अक्षीणमहानसालयप्रभृतिः । ( विसुद्धभावा णरा पत्ता ) विशुद्धभावा नरा जीवाः प्राप्ता लभन्ते स्म ।
सिवमजरामलिंगमणोवममुत्तमं परमविमलमतुलं । पत्ता वरसिद्धिसुहं जिणभावणभाविया जीवा ॥ १६०॥ शिवमजरामर लिङ्गमनुपममुत्तमं परमविमलमतुलम् । प्राप्ता वरसिद्धिसुखं जिनभावनाभाविता जीवाः ॥ १६० ॥ ( सिवमजरामरलिंगं ) शिवं परमकल्याणं परमंमंगलभूतं कर्ममलकलंकरहितत्वात्, अजरामरलिंगं जरामरणरहितचिन्हं । ( अणोवमं ) उपमारहितं । ( उत्तमं ) परममुख्यं ( परमविमलं ) द्रव्यकर्मभावकर्म नोकर्मरहितं । ( अतुलं ) अनन्तमित्यर्थः । ( पत्ता वरसिद्धिसुहं ) एतद्विशेषणविशिष्टं वरं श्रेष्ठं सिद्धिसुखं परमनिर्वाणसौख्यं प्राप्ताः लभन्ते स्म । ( जिणभावणभाविया जीवा ) जिनभावनया निर्मलसम्यक्त्वेन भाविता वासिता जीवा आसन्नभव्याः ।
ते मे तिहुवण महिया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिच्चा । वितु वरभावसुद्ध दंसणणाणे चरिते य ॥१६१॥ ते मे त्रिभुवनमहिताः सिद्धाः शुद्धा निरंजना नित्याः । ददतु वरभावशुद्धि दर्शनज्ञाने चारित्रे च ।। १६१ ।।
है तथा आकाशगामी चारण ऋषिके धारक मुनियों को अक्षीण महानसअक्षीण महालय आदि अनेक ऋद्धियों को शुद्धसम्यक्त्व के धारक मनुष्य ही प्राप्त हुए हैं ।। १५९ ॥
गाथा - जन भावना, अर्थात् निर्मल सम्यक्त्व से वासित आसन्न भव्य जीव परम मङ्गल भूत जरा और मरण के चिह्नों से रहित होने के कारण जो अजरामर लिंग हैं, वे अनुपम, उत्तम, अत्यन्त विमल और अतुल - अनन्त उत्कृष्ट सिद्धि के सुखको प्राप्त हुए हैं ।। १६० ।।
विशेषार्थ - कर्ममल कलङ्क से रहित होनेके कारण जो शिव अर्थात् मोक्ष परम कल्याण एवं परम मङ्गल भूत है, उपमा रहित होनेसे अनुपम है, परम मुख्य है, द्रव्य कर्म भावकर्म और नो-कर्म से रहित होने के कारण अत्यन्त विमल है, अतुल्य अर्थात् अनन्त है, ऐसे उत्कृष्ट सिद्धि सम्बन्धी परम निर्वाण सुखको जिन भावना अर्थात् निर्मल सम्यक्त्व से भावित अर्थात् वासित निकट भव्य जोव प्राप्त करते हैं ॥ १६० ॥
गाथार्थ - जो त्रिभुवन के द्वारा पूजित हैं, शुद्ध हैं, निरञ्जन हैं और
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