Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
५६२
षट्प्राभृते (परमपयं) परमपदं परमं उत्कृष्टं इन्द्रादिदेव-नरेन्द्रादिमानव-गणधरादिमहामुनीश्वरसंयुक्तसमवसरणस्थानमण्डितं । अथ केषां परमात्मानं वक्ष्यामि ? (परमजोईणं) परमयोगिनां दिगम्बरगुरूणां । इत्यनेन मुनीनामेव परमात्मध्यानं घटते । तप्तलोहगोलकसमानगृहिणां परमात्मध्यानं न संगच्छते । तेषां दानपूजापर्वोपवाससम्यक्त्वप्रतिपालनशीलवतरक्षणादिकं गृहस्थधर्म एवोपदिष्टं भवतीति भावार्थः । ये गृहस्था अपि सन्तो मनागात्मभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रुवते .. ते जिनधर्मविराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्याः । अयत्याचारा गृहस्थधर्मादपि पतिता उभयभ्रष्टा वेदितव्याः । ते लोकाः, तन्नामग्रहणं तन्मुखदर्शनं प्रभातकाले न कर्तव्यं इष्टवस्तुभोजनादिविघ्नहेतुत्वात् । ते बिनस्नपनपूजादानादिसर्मघातका ज्ञातव्याः। जं जाणिऊण जोई जो 'अत्यो जोइऊण अणवरयं । अव्वावाहमणंतं अणोवमं हवइ णिव्वाणं ॥३॥
यद्ज्ञात्वा योगी यमर्थं दृष्ट्वाऽनवरतम् । अव्यावाधमनन्तं अनुपमं भवते निर्वाणम् ॥ ३॥ ,
में परम योगियों अर्थात् दिगम्बर गुरुओं के लिये यह कथन करूंगा, इस प्रतिज्ञा वाक्य से यह सूचित होता है कि परमात्मा का ध्यान मुनियों के ही घटित होता है तपे हुए लोहेके गोले के समान गृहस्थों के परमात्मा का ध्यान संगत नहीं होता। उनके लिये तो दान, पूजा, पर्वके दिन उपवास करना, सम्यक्त्व का पालन करना तथा शीलव्रत की रक्षा करना आदि गृहस्थ धर्मका उपदेश ही कार्य-कारी होता है। जो गृहस्थ होते हुए भी तथा रंच मात्र आत्माको भावना को न पाते हुए भी यह कहते हैं कि हम तो आत्मा का ध्यान करते हैं वे जिन धर्मको विराधना करने वाले मिथ्यादृष्टि हैं। ऐसे जीव मुनियोंके आचार से तो रहित हैं ही, गृहस्थ धर्म से भी पतित होकर उभय भ्रष्ट-दोनोंसे पतित हो जाते हैं।
गाथार्थ-जिस आत्म-तत्व को जानकर तथा जिसका निरन्तर साक्षात् कर योगी ध्यानस्थ मुनि, बाधा-रहित, अनन्त, अनुपम निर्वाण को प्राप्त होता है ।।३॥
१. जोयत्यो योगस्थो ध्यानस्थ इत्यर्थः । इति पुस्तकान्तरे पाठ तत्पक्षे योगस्थः
इति तस्य।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org