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-६. १४-१५] मोक्षप्राभृतम्
सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण । सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुदृट्ठकम्माणि ॥१४॥
स्वद्रव्यरतः श्रमणः सम्यग्दृष्टिर्भवति नियमेन ।
सम्यक्त्वपरिणतः पूनः क्षियते दुष्टाष्टकर्माणि ॥ १४ ॥ ( सद्दव्वरओ सवणो ) स्वद्रव्यरतः श्रवण आत्मस्वरूपे तन्मयभूतो दिगम्बरः । ( सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण ) सम्यग्दृष्टिर्भवति नियमेन निश्चयेन, अत्र सन्देहो नास्ति । सम्यग्दर्शनस्य आत्मपरिणामत्वेन सूक्ष्मत्वात्, चक्षुरादीन्द्रियाणामगोचरत्वात् । ( सम्मतपरिणदो उण ) सम्यक्त्वपरिणतः पुनः । (खवेइ दुट्ठकम्माणि) क्षिपते दुष्टानि अष्टकर्माणि ज्ञानावरणादीनि ।
जो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्टी हवेइ सो साहू । मिच्छत्तपरिणदो उण बज्झदि दुट्ठकम्मेहि ॥१५॥ यः पुनः परद्रव्यरतः मिथ्यादृष्टिर्भवति स साधुः । मिथ्यात्वपरिणतः पुनः बध्यते दुष्टाष्टकर्मभिः ॥१५।। ( जो पुण परदव्वरओ ) यः पुनः साधुः परद्रव्यरत इष्टवनितादिरतः स्तनजघनवदनलोचनादि विलोकनादिलम्पटः । (मिच्छादिट्ठी हवेइ सो साहू ) मिथ्यादृष्टिर्भवति संजायते साधुः जिनलिंगोपजीवी । (मिच्छत्तपरिणदो उण ) मिथ्यात्व— आवश्यकता नहीं है अथवा 'बन्धश्च मोक्षश्च अनयोः समाहारः' इस
प्रकार समाहार द्वन्द्व करने से नपुंसकलिङ्ग तथा एकवचन का प्रयोग . व्याकरण से सिद्ध है ॥१३॥
गाथार्थ--स्वद्रव्य में रत साधु नियम से सम्यग्दृष्टि होता है और सम्यक्त्वरूप परिणत हुआ साधु दुष्ट आठ कर्मोको नष्ट करता है ॥१४॥
. विशेषार्थ-आत्म स्वरूप में तन्मय रहने वाला दिगम्बर साधु निश्चय से सम्यग्दृष्टि होता है इसमें संशय नहीं है। सम्यग्दर्शन आत्मा की परिणति होनेसे सूक्ष्म है तथा चक्षुरादि इन्द्रियों का अविषय है। सम्यक्त्वरूप परिणत हुआ साधु ज्ञानावराणादि आठ दुष्ट कर्मोको खिपाता हैनष्ट करता है ।।१४|| - गायार्थ-जो साधु परद्रव्य में रत है वह मिथ्यादृष्टि होता है और मिथ्यात्व रूप परिणत हुआ साधु दुष्ट आठ कर्मोंसे बन्धन को प्राप्त होता है ॥१५॥
.. १. लोचनादिकायादिविलोकन मः ।
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