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षट्प्राभृते
[ - ६. ६
मिति । ( अणिदिओ केवली विसुद्धप्पा ) अनिन्द्रिय इन्द्रियज्ञानरहितः केवलज्ञानेन
द्रव्यपर्यायस्वरूपं जानन्नित्यर्थः ।
उक्तं च पुष्पदन्तेन महाकविना
सर्वहणु अणदिओ णाणमओ जो मयमुटु न पत्तियइ |
सो णिदिओ पंचिदियनिरओ वइतरणिहि पाणिउ पियइ ॥ १ ॥
अथवा -- अणिदिओ - अनंदित इन्द्रधरणेन्द्रनरेन्द्र खगेन्द्रादीनां स्तुत्य इत्यर्थः ।
उक्तं च सुलोचनाकान्तेन-
तुच्छोऽप्युपयात्यतुच्छतां । शुचिशुक्तिपुटेऽम्बु घृतं ननु मुक्ताफल प्रपद्यते ॥ १ ॥
शमिताखिलविघ्नसंस्तवस्त्वयि
विशेषार्थ - इस गाथा में श्री कुन्दकुन्द स्वामीने दश विशेषणों के द्वारा परमात्माका निरूपण किया है, जिनका भाव यह है- परमात्मा मलसे रहित है अर्थात् कर्ममल कलंक से रहित है, कला अर्थात् शरीर से रहित होनेके कारण कलत्यक्त अथवा निष्फल है, ईकार और आकार स्त्रीलिङ्ग में कहीं कहीं ह्रस्व भी होते हैं जैसे 'इष्टक चित्तम्' यहाँ पर इष्टिका के बदले इष्टकचितं प्रयुक्त होता है और 'इषीका तुलम्' यहाँ पर इषीका के स्थान पर ह्रस्वान्त ईषीक शब्दका प्रयोग हुआ है। परमात्मा अतीन्द्रिय है अर्थात् इन्द्रिय ज्ञानसे रहित है क्योंकि वह केवलज्ञान के द्वारा द्रव्य और पर्याय के स्वरूप को जानता है ।
जैसा कि महाकवि पुष्पदन्त ने कहा है
सव्वण्हु - परमात्मा सर्वज्ञ अतीन्द्रिय और ज्ञानमय है, ऐसा जो मूढमति मनुष्य श्रद्धान नहीं करता है वह निन्दित है, पंचेन्द्रियों में निरत है तथा मरकर वैतरणी नदी का पानी पीता है अर्थात् नरक जाता है।
अथवा 'अणिदियो' की छाया 'अनिन्दितः' है, इस पक्ष में यह अर्थ होता है कि वह परमात्मा अनिन्दित है--निन्दित नहीं है अर्थात् इन्द्र धरणेन्द्र नरेन्द्र तथा विद्याधरेन्द्र आदिका स्तुत्य है । जैसा कि सुलोचना - कान्त-जयकुमार ने कहा है
शमिता - आपके विषय में किया हुआ समस्त विघ्नोंको शान्त करने वाला छोटा सा भी स्तवन अतुच्छता - विशालता को प्राप्त होता है, सो ठीक हो है, क्योंकि उज्ज्वल सीप के भीतर रखा हुआ पानी निश्चय से मुक्ताफलपने को प्राप्त होता है ।
१. विघृतं म० ।
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