Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-६.९]
मोक्षप्राभृतम्
५७१
( बहिरत्थे फुरियमणो ) बहिरर्थे इष्टवनितासुतस्वापतेयादौ स्फुरितं चमत्कृतं मनो यस्य स इष्टार्थे स्फुरितमनाः । ( इंदियदारेण णियसरूवचुओ ) इन्द्रियद्वारेण इन्द्रियेषु प्रविश्य, निजस्वरूपच्युत आत्मभावनायाः प्रभृष्टः । ( णियदेहं अप्पाणं ) निजदेहं स्वकीयशरीरं आत्मानमध्यवस्यतीति सम्बन्धः - शरीरमात्मानं जानातीत्यर्थः । ( अज्झवसदि मूढदिट्ठीओ ) अध्यवस्यति मूढदृष्टिस्तु ममायं काय आत्मनि जानाति मूढदृष्टिहिरात्मेतिभावार्थ: ।
णियदेहसरिस्सं पिच्छिऊण परविग्गहं पयज्ञेण । अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ 'परमभाए ॥ ९ ॥ निजदेहसदृक्षं दृष्ट्वा परविग्रहं प्रयत्नेन ।
अचेतनमपि गृहीतं ध्यायते परमभावेन ।। ९ ।।
( णियदेहसरिस्सं पिच्छिऊण ) निजदेहसदृक्षं सदृशं पिच्छिऊण दृष्ट्वा । ( परविग्गहं पयत्तेण ) परविग्रहं इष्टवनितादिशरीरं पयत्तेण -- प्रयत्नेन मलमूत्र - शुक्ररुधिरमांसकीकसचर्मरोमादिदुर्गन्धापवित्रादिपरिणामभावेन । ( अच्चेयणं प गहियं ) अचेतनमपि आत्मना गृहीतं जोवेन स्वीकृतं । ( झाइज्जइ परमभाएण )
विशेषार्थ - इस गाथामें बहिरात्मा जोवकी प्रवृत्तिका वर्णन करते हुए श्री कुन्दकुन्द स्वामी लिखते हैं कि जिसका मन इष्ट स्त्री पुत्र तथा धन आदिमें चमत्कार को प्राप्त हो रहा है तथा इन्द्रिय-सम्बन्धी विषयों में आसक्त होकर जो निज रूपसे च्युत हो गया है अर्थात् आत्माकी भावना से भृष्ट हो गया है ऐसा मूढ़ दृष्टि मनुष्य निज शरीरको ही आत्मा मान बैठता है ॥ ८ ॥
गाथार्थ - ज्ञानी मनुष्य निज-शरीर के समान पर शरीर को देखकर भेद ज्ञान पूर्वक विचार करता है कि देखो इसने अचेतन शरोरको भी प्रयत्नपूर्वक ग्रहण कर रक्खा है ॥ ९ ॥
विशेषार्थ - ज्ञानी जीव भेद ज्ञान -पूर्वक ऐसा विचार करता है कि जिस प्रकार मेरा शरीर मल मूत्र शुक्र रुधिर मांस हड्डी चर्म रोग आदि दुर्गन्ध युक्त अपवित्र पदार्थों से भरा हुआ है तथा अचेतन है, उसी प्रकार पर का शरीर भी अपवित्र वस्तुओं से भरा तथा जड़ रूप है परन्तु मोहो जीव उसे प्रयत्नपूर्वक ग्रहण किये हुए है । यहाँ संस्कृत टीकाकार ने 'परमभाण' की छाया 'परमभागेन' स्वीकृत की है और उसका अर्थ 'शरीर भिन्न है तथा आत्मा भिन्न है' ऐसा ज्ञान लिया है।
१. मिच्छभावेण, ग० घ० अन्यत्र च ।
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