Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभृते [५. १६३न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृन्मये। . भावेषु विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणं ॥१॥ भावविहूणउ जीव तुहं जइ जिणु वहहि सिरेण । पत्थरि कमलु किं निप्पजइ जइ सिंचहि अमिएण ॥ २ ॥ सीसु नमंतह कवणु गुणु भाउ कुसुद्धउ जाहं । पारदीदूणउ नमइ ढुक्कतउ हरिणाहं ॥ ३ ॥ अघ्नन्नपि भवेत् पापी निघ्नन्नपि न पापभाक् ।
परिणामविशेषेण यथा धीवरकर्षकौ ॥ ४॥ इय भावपाहुडमिणं सव्वं बुद्धेहि देसियं सम्मं । जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ अविचलं ठाणं ॥१६३॥ इति भावप्राभतमिदं सर्वं बुद्धः देशितं सम्यक् ।
यः पठति शृणोति भावयति स प्राप्नोति अविचलं स्थानम् ॥१६३॥ ( इय भावपाहुडमिणं ) इति-एवं प्रकार, भावप्राभृतमिदं भावप्राभृतनाम शास्त्रं ( सव्वं बुद्धहि देसियं सम्मं ) सर्व बुद्धः सर्वज्ञः देशितं कथितं सम्यङ् निश्चयेन । यथा मया कथितं सर्व बुद्ध रप्येवमेवोक्तमिति भावार्थः । ( जो पढइ
न देवी-देव न काष्ठ में हैं, न पाषाण में हैं, न मिट्टी के पिण्ड में हैं किन्तु भावों में हैं इसलिये भाव ही कारण है। .
भावविहणऊ-हे जीव ! यदि तू भावसे विहीन होकर शिरसे जिन भगवान् को धारण करता है तो इससे क्या होनेवाला है ? क्या अमृत से सींचने पर पत्थर पर कमल उत्पन्न हो सकता है ?
सीसु-जिसका भाव-अभिप्राय कुशुद्ध खोटा है उसके शिर झुकाने से कौनसा लाभ होनेवाला है अर्थात् कोई भी नहीं । हरिणों को मारने के लिये शिकारी बहत नम्रीभूत होता है।
अघ्नन्नपि-परिणाम विशेष के कारण धीवर घात न करता हुआ भी पापी है और खेत जोतने वाला किसान जोवोंका घात करता हुआ भी पापी नहीं होता। ___ गाथार्थ-सर्वज्ञ देवके द्वारा कथित इस समस्त भाव पाहड़ को जो पढ़ता है, सुनता है तथा उसकी भावना करता है वह अविचलस्थान को प्राप्त होता है ॥ १६३ ॥
विशेषार्थ-जो निकट भव्य मुनि श्रेष्ठ, सर्वज्ञ देव के द्वारा कहे हुए इस समप्र भावप्रप्रभृतका पठन करता है, सुनता है और चिन्तवन करता
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