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-५. १२९-१३०] भावप्राभृतम्
५२३ किं पुण गच्छइ मोहं परसुरसुक्खाण अप्पसाराणं । जाणंतो पस्संतो चितंतो मोक्ख मुणिधवलो ॥१२९॥
किं पुनः गच्छति मोहं नरसुरसुखानामल्पसाराणाम् ।
जानन् पश्यन् चिन्तयन् मोक्षं मुनिधवलः ।।१२९।। (किं पुण गच्छइ मोहं ) किं पुनर्गच्छति मोह लोभं । ( परसुरसुक्खाण अप्पसाराणं ) नराणां नृपादीनां सम्बन्धिनः सुराणामिन्द्रादीनां देवानां सम्बन्धिनां सौख्यानां मोहं लोभं किं गच्छति-अपि तु न गच्छति । कथंभूतानां सौख्यानां, अल्पसाराणां स्तोकप्रशस्यानां वा अल्पस्वादानामित्यर्थः । ( जाणतो पस्संतो) जानन्नपि अनुभूय दृष्ट्वा जानन्नपि, पस्संतो-पश्यन् प्रत्यक्षं चक्षुभ्यां निरीक्षमाणोऽपि । (चितंतो मोक्खमुणिधवली ) चिन्तयन्नपि विचारयन्नपि, किं ? मोक्षं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षं परमनिर्वाणसुखं अनन्तसौख्यदायकं परमनिर्वाणसुखं जानन्नपीत्यादिसम्बन्धः, मुनिघवलः मुनीनां मुनिषु वा धवलो निर्मलचारित्रभरोद्धरणधुरंधरो वृषभः श्रेष्ठ इत्यर्थः । उत्थरइ जा ण जरओ रोयग्गी जा ण डहइ देहडि । इंदियबलं न वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ॥१३०॥
आक्रमते यावन्न जरा रोगाग्निः यावन्न दहति देहकुटोम् । इन्द्रियबलं न विगलति तावत् त्वं कुरु आत्महतम् ॥१३०॥
गाथार्थ-जो सर्व कर्म-क्षयरूप मोक्षको जान रहा है, देख रहा है तथा उसाका चिन्तन कर रहा है ऐसा श्रेष्ठ मुनि, मनुष्य और देवोंके तुच्छ सुख में मोहको कैसे प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ।।१२९॥
विशेषार्थ-जो अनन्त सुखको देनेवाले मोक्षको जानता है, देखता है और चिन्तवन करता है ऐसा चारित्र के भारको धारण करने वाला - मुनि-वृषभ-श्रेष्ठ मुनि मनुष्य और देवोंके अल्प स्वाद से युक्त सुखोंके
लोभको क्या फिर प्राप्त होता है ? अर्थात् नहीं होता। मोक्षके आत्मीय सुखके समक्ष विषय-जन्य अल्प-तम सुख विवेकी मनुष्यको प्रलुब्ध नहीं कर सकता है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि साधु सांसारिक सुखसे सदा निःशंक रहता है ।। १२९||
गाचार्ष-हे आत्मन् ! जबतक बढ़ापा आक्रमण नहीं करता है, ..अबतक रोग रूपी अग्नि शरीर रूपो झोपड़ी को नहीं जलाती है और
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