Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-५. १४६ ] भावप्राभृतम्
कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य । दसणणाणुवओगो णिविट्ठो जिणवरिदेहि ॥१४६॥ कर्ता भोगी अमूर्तः शरीरमात्रः अनादिनिधनश्च ।
दर्शनज्ञानोपयोगः निर्दिष्टो जिनवरेन्द्रः ॥ १४६ ॥ (कत्ता भोइ अमुत्तो ) जोवशब्दः पूर्वोक्त एव ग्राह्यः । तेन जीव आत्मा कर्ता वर्तते न केवलं कर्ता पुण्यस्य पापस्य च अपि तु भोगी पुण्यस्य पापस्य च फलस्य भोक्ता आस्वादक इति व्यवहारः, निश्चयेन तु केवलज्ञानस्य केवलदर्शनस्य च कर्ता वर्तते । तथा अनन्तसुखस्य भोक्ता अनन्तवीर्यस्य च । अमूर्तो मूर्तेः शरीराद्रहित इति निश्चयः, व्यवहारेण तु कर्मबन्धप्रबन्धात् शरीरसंयुक्तत्वाच्च मूर्त इत्युच्यते । ( सरीरमित्तो अणाइणिहणो य ) शरीरमात्र शरीरप्रमाण आत्मा वतंत इति . व्यवहारः तत्सुखदुःखाद्यावेदकत्वात्, निश्चयेन तु असंख्यातप्रदेशस्वाल्लोकप्रमाणः । अनादिनिधनश्च जीवस्यादिर्नास्ति निधन विनाशश्च न वर्तते । (दसणणाणुवयोगो ) दर्शनज्ञानोपयोगः व्यवहारेण चत्वारि दर्शनानि अष्टज्ञानानि उभयाभ्यां द्विविधोपयोगः, निश्चयेन तु केवलज्ञानकेवलदर्शनाम्यां द्विविधोपयोगः
गाचार्य-जिनेन्द्र देव ने जोवको कर्ता, भोक्ता, अमूर्त, शरीरप्रमाण, अनादिनिधन, तथा दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग से युक्त कहा ॥१४६॥
विशेषार्थ-यह जीव व्यवहार नयसे पुण्य पापका कर्ता है तथा पुण्य पापके फलको भोगने वाला है और निश्चयनय से केवल ज्ञान तथा केवलदर्शन का कर्ता है और अनन्तसुख तथा अनन्तवीर्यका भोक्ता है। मूर्ति अर्थात् शरीरसे रहित होनेके कारण अमूर्त है, यह निश्चय नयका कथन है और कर्मबन्ध तथा शरीर से संयुक्त होनेके कारण मूर्त है, यह व्यवहार नयका कथन है। क्योंकि आत्मा शरीर-सम्बन्धी सुख दुःख
आदिका वेदन करता है इसलिये व्यवहारको अपेक्षा शरीर-प्रमाण है तथा निश्चयको अपेक्षा असंख्यात-प्रदेशी होनेसे लोक-प्रमाण है। यह जीव द्रव्य दृष्टि से अनादि अनन्त है [ और पर्यायदृष्टि से सादि सान्त है ] व्यवहार नयकी अपेक्षा चार प्रकारके दर्शनोपयोग और आठ प्रकार के ज्ञानोपयोग से सहित है। निश्चयनय की अपेक्षा केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दो उपयोगों से सहित है और परम निश्चय नयकी अपेक्षा तन्मय होने के
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