Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
५३८ षट्प्राभृते
[५. १४५भ्रपटलादिरहिते । ( भाविय तह वयविमलं ) तथा तेन प्रकारेण भावितव्रत व्रतमंण्डितं निरतिचारव्रतसहितं । ( जिनलिंगं देसणविसुद्ध) जिनलिंगं निर्ग्रन्थमुनिपुङ्गववेषःदर्शनेन सम्यक्त्वेन विशुद्ध निर्मलं जिनशासने शोभते इति शेषः ।
इय गाउं गुणदोसं दंसणरयणं धरेह भावेण । सारं गुणरयणाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥१४५॥
इति ज्ञात्वा गुणदोषं दर्शनरत्नं धरत भावेन।
सारं गुणरत्नानां सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥ १४५ ।। . (इय गाउं गुणदोस) इत्यमुना प्रकारेण ज्ञात्वा सम्यग्विचार्य गुणदोष, सम्यक्त्वगुणरत्नमण्डितः पुमान् गुणवान्-मिथ्यात्वेन दुषितो जीवो महापातकोति विज्ञाय । (दसणरयणं घरेह भावेण ) दर्शनरत्नं सम्यक्त्वरत्न घरत यूयं भावेन शुद्धपरिणामेन कपटं परित्यज्येत्यर्थः । ( सारं गुणरयणाणं ) सारं उत्तम गुणरत्नानां मध्ये व्रतसमितिगुप्त्यादीनां मध्ये दानपूजोपवासशीलवतादीनां च मध्ये सम्यक्त्वरत्नं सारं उत्तमं धरत मथं यं हे भव्याः !। कथंभूतं, (सोवाणं पढम मोक्खस्स ) सोपानं आरोहणं पादारोपणस्थानं पढम-प्रथमं। कस्य, मोक्षस्य सर्वकर्मक्षयलक्षणोपलक्षितस्य मोक्षप्रासादस्योपरितनभूम्युपरिगमने, सिद्धपर्यायप्रापणमित्यर्थः ।
विशेषार्थ-मेघपटल तथा धलि आदि से रहित आकाश निर्मल कहलाता है जिस प्रकार निर्मल आकाश में ताराओं के समह से सहित चन्द्रमण्डल सुशोभित होता है उसी प्रकार विमल अर्थात् पूर्वापर विरोध से रहित जिनशासन में निरतिचार व्रतों से युक्त एवं सम्यक्त्वसे विशुद्धनिर्दोष जिनलिङ्ग-निर्ग्रन्थ मुनिका वेष सुशोभित होता है ॥ १४४ ।।
गाथार्थ-इस प्रकार गुण और दोष को जानकर हे भव्य जीवो ! तुम उस सम्यग्दर्शन रूपी रत्नको भावसे धारण करो जो कि गुणरूपी रत्नों में श्रेष्ठ है तथा मोक्ष महल की पहली सीढ़ी है ॥ १४५ ॥
विशेषार्थ-सम्यक्त्वगुणरूपी रत्न से मण्डित पुरुष गुणवान् है और मिथ्यात्व से दूषित जीव महापापी है, ऐसा जानकर हे भव्य जीवो ! तुम उस सम्यक्त्व-रूपी रत्न को भाव अर्थात् शुद्ध परिणाम से धारण करो, जो कि मुनियों की अपेक्षा व्रत समिति गुप्ति आदि गुण रूपी रत्नों के मध्य सारभूत है तथा श्रावकों को अपेक्षा दान पूजा उपवास शील व्रत आदि गण रूपी रत्नोंके बीच सर्वोत्तम है और सर्व कर्म-क्षय रूप मोक्ष महल के उपरितन भाग में जाने के लिये पहली सीढ़ी है ॥१४५॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org