Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 580
________________ -५. १३३ ] भावप्राभृतम् ५२७ जीव ! भक्षिताः, उच्छ्वासप्राणोऽपि त्वया चविता, आयु प्राणश्चोद राग्निभाजनं कृतः । ( अणंतभवसायरे भमंतेण ) अनन्तानन्तसंसारसमुद्रे भ्रमता पर्यटता ( भोयसुहकारणट्ठ ं ) भोगसुखकारणार्थं जिह्वोपस्थसंजातसुखहेतवे । ( कदो य तिविद्वेण सयलजीवाणं ) दशप्राणानां त्वया आहारः कृतः त्रिविधेन मनसा वाचा वपुषा चेति सकलजीवानां चातुर्गतिक प्राणिनां । पाणिवहेहि महाजस घउ रासीलक्खजोणिमज्झम्मि । निरंतरं उप्पज्जतमरंतो पत्तोसि प्राणिवधेः महायशः ! चतुरशीतिलक्ष योनिमध्ये । उत्पद्यमानश्रियमाणः प्राप्तोसि निरन्तरं दुःखम् ॥ १३३॥ ( पाणिवहेहि महाजस ) प्राणिनां बधेः कृत्वा हे महायशः ! | ( चउरासीलक्ख जोणिमज्झम्मि ) चतुरशीतिलक्षयोनीनां मध्ये । ( उप्पज्जंतम रंतो ) उत्पमानो यमाणश्च । ( पत्तोसि निरंतरं दुक्खं ) प्राप्तोऽसि लब्धवानसि निरन्तरमविच्छिन्नं दुख शारीरमानसागन्तुकलचणं । चतुरशीतिलक्षयोनीनां त्रिवरणनिर्देशः पूर्वोक्त एव ज्ञातव्यः । दुक्खं ॥ १३३॥ उत्कृष्ट रूपसे शरीर को मन वचन कायसे अपना आहार बनाया है । जीवोंके पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयु और उच्छ्वास ये दश प्राण होते हैं । देव और नारकियों के शरीर किसी के ग्रहण में नहीं आते मात्र मनुष्य और तिर्यञ्चों के शरीर ही ग्रहण में आते हैं। आचार्य कहते हैं कि हे जीव ! इस अनन्तानन्त संसार में भ्रमण करते हुए तूने समस्त मनुष्यों और तिर्यञ्चों के पाँच इन्द्रिय रूप प्राणोंको कबलित किया है, मन, वचन, काय, रूप तीन बलोंका खाया है, श्वासोच्छ्वास प्राणको चबाया है और आयु प्राणको जठराग्निका पात्र बनाया है ओर वह भी किसलये ? सिर्फ जिह्वा और जननेन्द्रियके सुखके निमित्त । अब चेत और षट्जोवनिकाय पर दया धारण कर ॥ १३२॥ गाथार्थ - हे महायश ! उक्त प्राणिवधके कारण तू चौरासी लाख योनियों मे उत्पन्न होता हुआ, मरता हुआ निरन्तर दुःख को प्राप्त हुआ है ।। १३३ ।। विशेषार्थ - इस गाथा म पूर्वोक्त प्राणिवधका फल बताते हुए आचाय कहते हैं कि हे महायश के धारक ! मुनिवर ! प्राणि वधके कारण तूने चारासा लाख योनियों में बार बार जन्म मरण कर निरन्तर शारारिक मानसिक ओर आगन्तुक दुःख उठाया है अब सावधान होकर जोवोंकी रक्षा कर ।। १३३ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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