Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
५३४
षट्प्राभृते
[ ५.१४१
मनो जिनमार्गे जिनधर्मे त्वं स्थापय । ( असप्पलावेण कि बहुणा ) असत्प्रलापेनानकेन वचसा बहुना प्रचुरतरेण कि ? न किमपीत्याक्षेपः । जीवविवको सवओ दंसणमुक्को य होह चलसवओ । सवओ लोयअपुज्जो लोउत्तरयम्मि चलसवओ ॥ १४१ ॥ जीवविमुक्तः शवः दर्शनमुक्तश्च भवति चलशवकः । शवको लोकापूज्यः लोकोत्तरे चलशवकः ।। १४१|| ( जीवविमुक्को सवओ ) जीवविमुक्तो जीवेन रहितः कायो लोके शव उच्यते । ( दंसणमुक्को य होइ चलसवओ ) दर्शनमुक्तः पुमान् सम्यक्त्वहीनो जीवश्च भवति चलशवकः कुत्सितं मृतकः । ( सवओ लोयअपुज्जो ) जीवरहितः शवको लोकानामपूज्यः, अपूज्यत्वादेव भूमौ निखन्यते, अग्निना भस्मीक्रियते वा ( लोउत्तरयम्मि चलसवओ ) लोकोत्तरे लोके जैनलोके चलसवओ सचेष्टितमृतक्वो मिथ्यादृष्टिर्मुनिः लोकोत्तराणां सम्यग्दृष्टिलोकानां अपूज्योऽमाननीयो भवति । इति भावप्राभृतस्य गोप्यतत्वं यत्सद्दृष्टिना जीवेन भवितव्यमिति । लौंकास्तु पापिष्ठा
जीव ! तू इन्हें छोड़ और जिनधर्मं रूपो राजमार्ग में अपने मनको रोक । अधिक कहने से क्या लाभ है ? अर्थात् कुछ नहीं || १४० ॥
>
गाथार्थ - जीव से रहित शरीर शव कहलाता है और सम्यक्त्व से रहित शरीर चलशव - चलता फिरता शव कहलाता है । शव इस लोक में अपूज्य होता है और चल शव मरण के बाद प्राप्त होनेवाले उत्तरलोक में अपूज्य होता है अथवा चलशव लोकोत्तरलोक--जैन लोक में अपूज्य होता है ॥ १४१ ॥
विशेषार्थ - शरीर का सन्मान जीवसे है जिस शरीर से जीव निकल जाता है वह शरीर शव अर्थात् मुर्दा कहलाने लगता है । इसी प्रकार मनुष्य का सम्मान सम्यग्दर्शन से है जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से रहित है वह चलशव अर्थात् चलता फिरता मुर्दा कहलाता है । शव लोक में अपूज्य माना जाता है, इसीलिये वह जमीन में गाड़ा जाता है अथवा अग्नि द्वारा भस्म किया जाता है । चलशव, मिथ्यादृष्टि मुनि है । वह लोकोत्तर अर्थात् सम्यग्दृष्टि लोगोंके अपूज्य होता है उसे कोई सन्मान नहीं देता है । अथवा लोकोत्तर का अर्थं परलोक भी होता है इसलिये दूसरा अर्थ यह भी होता है कि मिथ्यादृष्टि मनुष्य परलोक में होन दशा को प्राप्त होता है, इस प्रकार भाव प्राभृतका गोप्य तत्व यह है कि जीवको सम्यग्दृष्टि होना चाहिये ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org