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षट्प्राभृते
[५. १३२( छज्जीवछडायदणं ) षड्जीवानां दयां कुरु, षडनायतानि परिहर कथं, ( णिच्चं ) सर्वकालं । ( मणवयणकायजोएहिं ) मनोवचनकाययोगैः। (कुरु दय परिहर मुणिवर ) हे मुनिवर मुनोनां श्रेष्ठ ! ( भावि अपुव्वं महासत्त ) भावय अपूर्व आत्मभावनं हे महासत्व महाप्रसन्नधर्मपरिणाम !।। "अभावियं भावेमि भावियं न भावेमि,"
इति श्रीगौतमोजत्वात् ! . दसविहपाणाहारो अणंतभवसायरे भमंतेण । भोयसुहकारणटुंकदो य तिविहेण सयलजीवाणं ॥१३२॥ दशविधप्राणाहारः अनन्तभवसागरे भ्रमता। '
भोगसुखकारणार्थ कृतश्च त्रिविधेन सकलजीवानाम् ॥१३२।। ( दसविहपाणाहारो) दशविधानां प्राणानामाहारः पंचेन्द्रियाणि मानवानां तिरश्चां च त्वया कवलितानि, मनोवचनकायलक्षणास्त्रयो बलप्राणास्त्वया हे
से छह कायके जीवोंपर दया कर, छह अनायतनों का परित्याग कर और अपूर्व आत्म-तत्वकी भावना को कर ॥१३१॥
विशेषार्थ-पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और बस ये छहकाय के जीव हैं । हे मुनिवर ! तू सदा मन वचन कायसे इनपर दया कर-इनकी रक्षा कर। कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, कुगुरुसेवक, कुदेव सेवक और कुधर्म सेवक ये छह अनायतन हैंभक्ति वन्दना आदिके अस्थान हैं । हे महासत्व ! हे निर्मल धर्म परिणाम के धारक मुने ! तू इन छह अनायतनों का मन वचन काय से परित्याग कर और जिस आत्म-भावना का तूने आजतक चिन्तन नहीं किया है उसका चिन्तन कर । श्री गौतम ने भी कहा है
अभावियं-जिस आत्म-स्वरूप की अब तक भावना नहीं की उसकी भावना करता हैं और जिस विषय भोग को निरन्तर भावना की उसको भावना नहीं करता हूं।
गाथार्थ-हे जोव ! अनन्त भवसागर में भ्रमण करते हुए तूने भोग-सुखके निमित्त मन वचन कायसे समस्त जोवोंके दश प्राणोंका आहार किया है ॥१३२॥
विशेषार्थ-यह जीव अनादि कालसे अनन्तानन्त भव धारण कर चुका है। उन सब भवोंमें इसने अपने भोग सुखके लिये समस्त जीवोंके
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