Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभृते
[५.११५
( मुक्खो जिणसासणे दिट्ठी ) मोक्षः सर्वकर्मप्रक्ष यलक्षणोपलक्षितं परमनिर्वाण जिनशासने श्रीमद्भगदर्हत्सर्वज्ञवीतरागम शासने निर्दिष्टः प्रतिपादितः परिणामादेवेति निश्चयः, स मोक्षकारणभूतः परिणाम आत्मन्येकलोलीभाव इति भावार्थ: । मिच्छत्त तह कसायाऽसंजमजोगेहि असुहलेसह । बंधइ असुहं कम्मं जिणवयणपरम्हो जीवो ॥ ११५ ॥ मिथ्यात्वं तथा कषाया असंयमयोगैरशुभलेश्येः । नाति अशुभं कर्म जिनवचनपराङ्मुखो जीवः ॥ ११५ ॥
( मिच्छत तह कसाया ) मिथ्यात्वं पंचविधं तथा तेनैव पंचप्रकार मिथ्यात्वप्रकारेण कषायाः पंचविंशतिभेदाः । ( असंजमजोगेहि असुहलेसेहि ) असंयमो द्वाद्वशविषः, योगाः पंचदशभेदाः, एवं सप्तपंचाशत्कर्मबन्धप्रत्ययाः कारणानि आस्रवभेदा भवन्तीति संक्षेपार्थः । कथंभूतैरेतैरास्रवः, अशुभलेश्यैः कृष्णनीलकापोतलेश्याबलेन संजातैः । ( बंधइ असुहं कम्मं ) बध्नाति अशुभं कर्म । ( जिणवयणपरम्मुहो जीवो ) जिनवचनपराङ्मुखो जीवो मिध्यादृष्टिरात्मा ।
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के निमित्त से होते हैं और स्थिति तथा अनुभाग बन्ध कषाय से होते हैं।
समस्त कर्मों के क्षयसे प्राप्त होने वाला जो परम- निर्वाण है वह भी परिणाम से ही होता है, ऐसा वीतराग सर्वज्ञ देवके शासन में कहा गया है । यहाँ परिणाम शब्द से आत्मा में एकलोलीभाव - तन्मयीभावका ग्रहण करना चाहिये क्योंकि ऐसा भाव ही परम यथाख्यांतचारित्र ही मोक्षका साक्षात् कारण है ॥ ११४ ॥
गाथार्थ - जिन-वचन से पराङमुख जीव, मिथ्यात्व, कषाय, असंयम, योग और अशुभ लेश्या के द्वारा अशुभ कर्म का बन्ध करता है ॥ ११५ ॥ विशेषार्थ - मिथ्यात्व के पांच भेद हैं, कषाय के पच्चीस भेद प्रसिद्ध हैं, असंयम अर्थात् अविरति के बारह भेद हैं और योग के पन्द्रह भेद हैं । ये
सब मिलाकर आस्रव के सत्तावन भेद हैं । कषायके उदयसे अनुरञ्जित योगकी प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं उसके कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल के भेदसे ६ भेद होते हैं इनमें प्रारम्भके तोन भेद अशुभ लेश्याएँ हैं । जिनवाणीकी श्रद्धा और ज्ञानसे विमुख हुआ जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है तथा वह ऊपर कहे हुए सत्तावन आस्रवों अथवा कृष्ण नील और कापोत रूप तीन अशुभ लेश्याओं से पापकर्मका बन्ध करता है ॥ ११५ ॥
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