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-५. १२२] भावप्राभृतम्
जसु हिरणच्छी हियवडइ तासु न बंभु वियारि । एक्कहि केम समंति वढ ! वे संडा पडियारि ॥१॥
उक्तंच
वृष्टयाकुलश्चण्डमरुझंझावातः प्रकीर्तितः । झायहि पंच वि गुरवे मंगलचउसरणलोयपरियरिए। परसुरखेयरमहिए आराहणणायगे वीरे ॥१२२॥ ध्याय पञ्चापि गुरून् मङ्गलचतुःशरणलोकपरिकरितान् । नरसुरखेचरमहितान् आराधनानायकान् वोरान् ॥१२२॥
( शायहि पंच वि गुरवे ) ध्याय त्वं हे मुने ! हे आत्मन् ! पंचापि अर्हत्सिदाचार्योपाध्यायसवंसाधून पंचपरमेष्ठिनः कथंभूतान् पंचापि गुरुन्, ( मंगलचउसरणलोयपरियरिए ) मंगललोकोत्तमशरणभूतानित्यर्थः । मलं पापं गालयन्ति मूलादुन्मूछयन्ति निमूलकाष कषन्तीति मंगलं । अथवा मंगं सुखं परमानन्दलक्षणं लान्ति ददतीति मंगलं । एते पंचपरमेष्ठिनो मंगलमित्युच्यन्ते । लोकेषु भूर्भुवः स्वर्लक्षपेषु उत्तमा उत्कृष्टा लोकोत्तमाः। एते पंचगुरवः सर्वेभ्योऽपि वर्या उच्यन्ते । तथा
जसु-जिसके हृदय पट में मृगनयनी विद्यमान है उसके हृदय में ब्रह्मचर्य का विचार नहीं रह सकता क्योंकि अरे मूर्ख ! एक म्यान में दो तलवारें नहीं रहती हैं।
झंझावायुका लक्षण कोषकारों ने कहा है
वृष्टयाकुल-वर्षाके साथ जो तेज वायु चलती है उसे झंझावायु कहते हैं । यहाँ आचार्य ने रागको झंझावायु की उपमा दी है।
गाथार्य हे आत्मन् ! तू उन पांचों परमेष्ठियों का ध्यान कर जो चार मङ्गल, चार शरण और चार लोकोत्तम रूप हैं, मनुष्य देव और विद्याधरों से पूजित हैं, आराधनाओं के स्वामी हैं तथा कर्म रूप शत्रुओं
को नष्ट करने में वीर हैं ।।१२२॥ ..विशेषार्थ-अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु ये पाँच परमेष्ठी हैं। ये हो पांच गुरु कहलाते हैं । ये सब मङ्गल रूप हैं, लोकोत्तम कम हैं और शरणभूत हैं । जो मम् अर्थात् पापको गला दे, जड़से उखाड़ कर नष्ट कर दे, वह मङ्गल है अथवा जो मङ्ग अर्थात् परमानन्द रूप सुखको देवे वह मङ्गल है। पञ्च परमेष्ठी इन दोनों लक्षणोंसे मक रूप हैं। ये पञ्चपरमेष्ठी अधोलोक व मध्यलोक तथा ऊवलोक
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