Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-५. ११४ ]
सवेद्य शुभायुर्नामगोत्रलक्षणं तीर्थंकरनामकर्मासाधारणपुण्यं परिणामेनैवोपा
ज्यंत इत्यर्थः । तथा चोक्तं
भावप्राभृतम्
परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोनिपुणाः । पापापचयश्च सुविधेयः ॥ १ ॥
तस्मात्पुण्योपचयः
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तथा च समयसारः
'आत्मकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ १ ॥ ( परिणामादो बंधो ) परिणामाबन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशलक्षणश्चतु
विधो बन्धः पुण्यसम्बन्धी पापसम्बन्धी च बन्धः संजायते । उक्तं चपर्याडट्ठि दिअणुभागप्पदेसबंधा दु चदुविधो बंधो। जोगा पर्यापदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति ॥ १ ॥
समर्थ है, जिन भक्ति ही पुण्य की पूर्णता करने में समर्थ है और जिनभक्ति ही कुशल मनुष्यको मोक्ष लक्ष्मी प्रदान करने में समर्थ है।
'सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्' इस उल्लेख के अनुसार सातावेदनीय शुभ आयुशुभनाम और शुभगोत्र पुण्यकर्म कहलाते हैं, तीर्थंकर नामकर्म भी असाधारण - लोकोत्तर पुण्यकर्म है इसकी प्राप्ति भी परिणाम अर्थात् भावसे ही होती है । जैसा कि कहा गया है।
परिणाममेव – निश्चय से कुशल मनुष्य पुण्य और पापका कारण परिणाम-भाव को ही कहते हैं इसलिये पुण्यका संचय और पापका अपचय करना चाहिये ।
यही आगम का सार है—
धात्मकृत — आत्मा के द्वारा किये हुए रागादि परिणाम को निमित्त मात्र पाकर पुद्गल द्रव्य स्वयं ही कर्मरूप परिणम जाते हैं अर्थात् पुद्गल द्रव्य-कर्मरूप परिणमन करनेमें आत्माका रागादि भाव निमित्तकारण और पुद्गलद्रव्य स्वयं उपादान कारण है
प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेश के भेद से बारह प्रकारका अथवा पुष्य और पापके भेदसे दो प्रकारका बन्ध परिणाम - भावसे ही होता है । जैसा कि कहा गया है
१. पुरुषार्थ सिद्धयुपाये ।
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पर्यादिवि - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से बन्ध चार प्रकारका होता है। इनमें से प्रकृति और प्रदेशबन्ध योग के
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