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-५. ११९] भावप्राभृतम्
५०७. चारं २, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ३, व्युपरतिक्रियानिति ४ चेति । ( अट्टरउई च झाण मुत्तूण ) आत्तं रौद्रं च ध्यानद्वयं मुक्त्वा परित्यज्य । तत्रार्तध्यानं चतुर्विधं इष्टवियोगः १, अनिष्टसंयोगः २, पीडाचिन्तनं ३, निदानं चेति ४ । रौद्रध्यानं चतुर्विधं हिसा
उत्पन्न न हुआ हूँ इस प्रकार लोकका चिन्तवन करना लोक विचय है । जीवके चतुर्गति रूप भवों का विचार करना सो भवविच य है । जीवों की भिन्न भिन्न जातियोंका चिन्तवन करना सो जीव विचय है। भगवान् वीतराग सर्वज्ञ हैं, अतः उनकी वाणी में असत्यता का कुछ भी कारण नहीं है वह आज्ञा मात्र से ग्राह्य है, ऐसा चिन्तवन करना आज्ञा विचय है । लोक अथवा छहों द्रव्यों की आकृतिका चिन्तन करना यहाँ सस्थानविचय धर्म ध्यान है तथा पञ्च परावर्तनोंका स्वरूप चिन्तवन करना संसार विचय है। ___ शुक्लध्यान के चार भेद हैं-पृथक्त्व वितर्क वीचार, एकत्व वितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिति जिसमें आगम के किसी पद, वाक्य या अर्थ का तीन योगोंके आलम्बनसे चिन्तन किया जाता है वह पृथक्त्ववितर्क वीचार नामका शुक्लध्यान है। इस ध्यानमें अर्थ, व्यञ्जन (शब्द) और योगोंमें संक्रमण-परिवर्तन होता रहता है तथा यह अष्टम गुणस्थान से प्रारम्भ होकर ग्यारहवें गुणस्थान तक चलता है। जिसमें आगम के किसी पद, वाक्य या अर्थका तीन योगों में से किसी एक योगके आलम्बन से चिन्तन होता है उसे एकत्ववितर्क शक्लध्यान कहते हैं । इसमें अर्थ, शब्द और योगोंका संक्रमण नहीं होता है । जिस पद वाक्य या अर्थ को लेकर जिस योगके द्वारा ध्यान प्रारम्भ किया था उसीसे अन्तर्मुहूर्त तक चालू रहता है। यह बारहवें गुणस्थान में प्रकट होता है । तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम अन्तम'हर्त में जब मनोयोग और वचन योग पूर्णरूपसे नष्ट हो चुकते हैं तथा काय योग भी अत्यन्त सूक्ष्म दशा ‘में शेष रह जाता है तब सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति नामका शुक्लध्यान प्रकट होता है और चौदहवें गुणस्थान में जब काय योग भी नष्ट हो चुकता है तथा सब प्रकार की हलन चलन रूप क्रियाएँ समाप्त हो जाती हैं तब व्युपरतक्रियानिवर्ति नामका शुक्लध्यान प्रकट होता है। धर्म्यध्यान परम्परा से और शुक्लध्यान साक्षात् मोक्षका कारण है परन्तु शुक्लध्यान का जो प्रथम पाया उपशम श्रेणीवाले जीवके होता है उसमें मोक्षकी अनिवार्य कारणता नहीं है क्योंकि ऐसा जीव मरण होनेपर स्वर्ग
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