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भावप्राभृतम्
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कमण्डलुसहितं निर्मलं कथ्यते तद्वयरहितं लिंगं कश्मलमित्युच्यते । अन्यत्र तीर्थंकर - परमदेवात्तप्तद्धविना अवधिज्ञानादृते चेत्यर्थः, शुद्धं चमंजलतैलघृतभूतनाशनास्वादरहितमुद्दण्डचर्यमन्तरायमलरहितं शुद्धमित्यभिप्रायः ।
उदर में क्षुधाकी बाधा रूपी अग्नि लगने पर उसे सरस या नीरस किसी भी प्रकार के आहार से बुझानेका प्रयत्न करते हैं, इस वृत्तिको उदराग्निविध्यापन कहते हैं ।
भावका अर्थ आत्म-स्वरूप अथवा जिन सम्यक्त्व है । जिस लिङ्ग के धारण करने के पूर्व उक्त भाव की भावना की जाती है वह जिन-लिङ्ग निर्मल होता है । जिनलिङ्ग में नग्न रूप धारण किया जाता है पोछी और कमण्डलु साथ रखना पड़ता है, इसीको अर्हन्मुद्रा कहते हैं । जो नग्न रूप पोछी और कमण्डलु से रहित होता है, वह सदोष कहा जाता है । ' विशेषता यह है कि जिनके शरीर में मल-मूत्र की बाधा नहीं रहती ऐसे तीर्थंकर परम देव तप्त ऋद्धिके धारक मुनि और अवधि ज्ञानसे युक्त
१. इस कथन का मूल आधार जयसेन प्रतिष्ठापाठका निम्नलिखित वाक्य मालूम होता है । 'अत्र कमण्डलु पिच्छिका दानं तीर्थंकरस्य शौचक्रियाजीवषातामावाच्च, न कतु प्रभवति, केवलं साधुत्वे उपयोगी, न तु प्रतिमायामर्हति चेत्याम्नायविदः । परन्तु इस वाक्य में प्रतिमा तथा अर्हन्त अवस्था में पिच्छी और कमण्डलु का निषेध किया है । साधु अवस्था में नहीं । तीर्थंकर के तथा तप्त ऋद्धि के धारक मुनिके यद्यपि मल-मूत्र की बाधा नहीं होती तथापि चर्या के अनन्तर बाह्य शुद्धि के लिये कमण्डलु की आवश्यकता रहती है । अवधि ज्ञानी मुनि सबके सब मल मूत्र से रहित नहीं ` होते, अतः उन्हें कमण्डलु आवश्यक है । और चरणानुयोग की प्रवृत्ति में अवधि ज्ञान का प्रयोग न होनेसे पिच्छी भी आवश्यक रहती है । पिच्छी का उपयोग विभिन्न प्रकारके मार्ग बदलने पर घूलि को मार्जन करने में भी होता है । ज्ञान केवल जीव जन्तुओंके दूर करनेमें । ' साथ ही भावसंग्रहका निम्न श्लोक भी विचारणीय है । मुनिको मयूर पिच्छका ग्रहण करना आवश्यक बतलाया है अवधि ज्ञान के बाद नहीं । पिच्छी कमण्डलु के सन्दर्भ में मुनि विद्यानन्द जी द्वारा लिखित पिच्छी, कमण्डलु नामक पुस्तक का दशव निबन्ध पिच्छि कमण्डलु देखना चाहिये ।'
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