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'षट्प्राभृते [५. १०९आचारः सारं । उन्मार्गोऽसारं जिनमार्गः सारं । अक्षमा असारं, क्षमा सारं ।। अगुप्तिः असारं, गुप्तिः सारं । अमुक्तिः असारं, मुक्तिः सारं । असमाधिः असारं, समाधिः सारं। ममत्वं असारं, निर्ममत्वं सारं । यद्भावितं तदसारं, यन्न भावितं तत्सारं । इति सारासाराणि ज्ञातव्यानि ।
सेवहि चउविहलिंगं अभंतरलिंगसुद्धिमावण्णो। बाहिरलिंगमकज्जं होइ फुडं भावरहियाणं ॥१०९॥ सेवस्व चतुर्विधलिङ्ग अभ्यंतरलिङ्गशुद्धिमापन्नः। ...
वाह्यलिङ्गमकायं भवति स्फुटं भावरहितानां ॥ १०९ ।। ( सेवहि चउविहलिंग ) सेवस्व हे मुने ! चतुर्विधं लिगं शिरःकेशमुखश्मश्रुलोचोऽध केशरक्षणं चतुर्विधमिदं लिंगं पिच्छकुण्डीद्वयग्रहः । ( अभंतरलिंगसुद्धिमावण्णो ) अभ्यन्तरलिंगं जिनसम्यक्त्वं तस्यशुद्धिमापन्नः प्राप्तः । ( बाहिरलिंगमकज्ज ) बहिलिंगं पूर्वोक्तं चतुर्विधलिंगमकार्य मोक्षदायकं न भवति । ( होइ फुडं
अशील असार है, शील सार है । शल्य सहित होना असार है, शल्य रहित होना सार है । अविनय असार है, विनय सार है। अनाचार असार है, आचार सार है । मिथ्यामार्ग असार है, जिनमार्ग सार है। अक्षमा असार है, क्षमा सार है । अगुप्ति असार है, गुप्ति सार है। अमुक्ति संसार असार है, मुक्ति सार है। असमाधि असार है, समाधि सार है। ममत्व असार है, निर्ममत्व सार है । जिस विषय सुखका उपभोग किया है वह असार है और जिसका उपभोग नहीं किया वह सोर है । इस प्रकार सारअसारके स्वरूपको जानना चाहिये ॥ १०८ ॥
गाथार्थ-हे मुने ! तू भावलिङ्ग को शुद्धिको प्राप्त होता हुआ बाह चार प्रकार के लिङ्ग को धारण कर । भाव रहित मुनियों का द्रव्य लिङ्ग निश्चित ही अकार्य-कर है-मोक्ष दायक नहीं है ॥ १०९ ॥
विशेषार्थ-अभ्यन्तर लिङ्गका अर्थ जिन-सम्यक्त्व है, मुनिको सर्व प्रथम उसकी संभाल करना चाहिये । पश्चात् भाव शुद्धि पूर्वक चार प्रकारका बाह्य लिङ्ग धारण करना चाहिये । १ शिरके केशलोंच करना २ डाड़ीके केशलोंच करना ३ मछके केशलोंच करना और ४ नीचे के केश रखना अर्थात् उनका लोच नहीं करना यह चार प्रकार का बाह्य लिङ्ग है। पीछी कमण्डलु धारण करना भी बाह्य लिङ्ग है। भाव-रहित अर्थात् मिथ्यादृष्टि मुनियोंका बाह्य लिङ्ग निश्चय से अकार्यकर है अर्थात् मोक्ष. को देने वाला नहीं है । यद्यपि द्रव्यलिङ्गो मुनि नव प्रवेयक तक उत्पन्न
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