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-५. ११०-१११] भावप्राभृतम् भावरहियाणं ) अकार्य भवति स्फुटमिति निश्चयेन भावरहितानां मिथ्यादृष्टीनां दिगम्बराणां ।
आहारभयपरिग्गहमेहुणसणाहि मोहिओसि तुमं । भमिओ संसारवणे अणाइकालं अणप्पवसो ॥११०॥
आहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञाभिः मोहितोसि त्वम् ।
भ्रमितः संसारवने अनादिकालमनात्मवशः ।। ११० ॥ ( आहारभयपरिग्गहमेहुणसण्णाहि मोहिओसि तुम ) आहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञाभिर्मोहित आत्मरूपाच्चलितः प्रचलितः प्रच्युतः, असि-भवसि, तुम-त्वं हे जोव । ( भमिओ संसारवणे ) भ्रान्तः पर्याटीस्त्वं संसारवने नरकतिर्यक्कुमनुष्यकुत्सितदेवगहने । (अणाइकालं) अनादिकालं पूर्वकाले । ( अणप्पवसो ) अनात्मवशः न आत्मा मनो वशे यस्य सोऽनात्मवशः विषयकषायान्यायरञ्जितहृदय इत्यर्थः ।।
बाहिरसयणतावणतरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि । पालहि भावविसुद्धो पूयालाहं न ईहंतो ॥१११॥
बहिःशयनातपनतरुमूलादीन् उत्तरगुणाणि । पालय भावविशुद्धः पूजालाभं अनाहमानः ॥१११।।
होते हैं तथापि देव पद पाना मुनिका लक्ष्य न होनेसे उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की गई है ॥ १०९॥ _ गापा हे जीव ! तू आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओंसे मोहित हो पराधीन हआ संसार रूपी अटवी में अनादि कालसे भ्रमण कर रहा है ।। ११० ॥
विशेषार्थ-संज्ञाका अर्थ अभिलाषा है । ये अभिलाषाएं आहार, भय, मैथुन और परिग्रह के भेदसे चार प्रकार की हैं। इनसे मोहित हुआ जोव 'स्व स्वरूप से च्युत होकर बाह्य पदार्थों में रमने की इच्छा करने लगता है । इनसे पीड़ित हुए जीवका मन स्वाधीन नहीं रहता किन्तु विषय कषाय और अन्याय से अनुरजित होकर पराधीन हो जाता है। यहाँ आचार्य, मुनिको संबोधते हुए कहते हैं कि हे मुने ! इन संज्ञाओंके चक्रमें पड़कर तूने अनादि कालसे नरक तिर्यञ्च कुमनुष्य और नीच देव गति रूपी बोहर बटवी में परिभ्रमण किया है अब तेरो मुनि अवस्था है अतः उनकी ओरसे सर्वथा मनकी प्रवृत्ति को दूर हटा ॥ ११० ।। .
गाचार्य-हे साधो ! तू भावसे शुद्ध होता हवा स्वाति, लाम गाडि
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