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४६२ षट्नाभृते
[५. ९६क्षीणकषायगुणस्थानं ( १२ ) संयोगकेवलिगुणस्थानं (१३ ) अयोगकेवलिगुणस्थानं ( १४ ) चेति । चतुर्दशगुणस्थानानां विवरणमागमाद्वेदितव्यं । तानि त्वं हे जीव ! भावय-रुचिमानय श्रद्धानं कुर्विति । .
णवविहबभं पयहिं अब्बभं दसविहं पमोत्तूण । मेहुणसण्णासत्तो भमिओसि भवण्णवे भीमे ॥१६॥
नवविधब्रह्मचर्य प्रकटय अब्रह्म दशविधं प्रमुच्य । ____ मैथुनसंज्ञासक्तः भ्रमितोसि भवार्णवे भीमे ॥१६॥
( णवविहबंभं पयडहि ) नवविधं नवप्रकार ब्रह्मचर्य हे जीव ! त्वं प्रकटय सर्वकालमात्मप्रत्यक्षं कुरु । मनोवचनकायानां प्रत्येकं कृतकारितानुमतानि त्रीणि त्रोणीति नवविधं ब्रह्मोच्यते । अथवा
१२ क्षीणमोह-क्षपकश्रेणी वाला जीव दसवें गुणस्थान में चारित्र मोहका पूर्ण क्षय कर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में आता है। यहां इसका मोह बिलकुल ही क्षीण हो चुकता है और स्फटिकके. भाजनमें रखे हुए स्वच्छ जलके समान इसकी स्वच्छता होती है ।
१३ सयोगकेवली-बारहवें गुणस्थानके अन्तमें शुक्लध्यानके द्वितीय पादके प्रभाव से ज्ञानावरणादि कर्मोंका युगपत् क्षय कर जीव तेरहवें गुणस्थानमें प्रवेश करता है। यहाँ इसे केवलज्ञान प्रकट हो जाता है इसलिये केवली कहलाता है और योगोंकी प्रवृत्ति जारी रहने से संयोग कहा जाता है। दोनों विशेषताओंको लेकर इसका सयोगकेवली नाम प्रचलित है।
१४ अयोगकेवली-तेरहवें गुणस्थानके अन्तमें शुक्लध्यान के तृतीय पादके प्रभाव से कर्म प्रकृतियों की निर्जरा होनेसे जिनकी योगोंको प्रवृत्ति दूर हो जाती है उन्हें अयोगकेवली कहते हैं । यह जीव इस गुणस्थान में 'अ इ उ ऋ लु' इन पांच लघु अक्षरों के उच्चारण में जितना काल लगता है उतने ही काल तक ठहरता है। अनन्तर शुक्लध्यान के चतुर्थ पादके प्रभावसे सत्ता में स्थित पचासी प्रकृतियों का क्षय कर एक समय के भीतर सिद्ध क्षेत्र पहुंच जाता है। ___ गाथार्थ-हे जीव ! तू दश प्रकार के अब्रह्म का त्याग कर नौ प्रकार के ब्रह्मचर्यको प्रकट कर। मैथुनसंज्ञामें आसक्त हुआ तू इस भयंकर भवसागर में भटकता आ रहा है ॥९६||
विशेषार्थ-मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना इन नौ कोटियोंसे ब्रह्मचर्य धारण करना नौ प्रकारका ब्रह्मचर्य है अथवा
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