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-५. १०८]
भावप्राभृतम्
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आतङ्कपावकशिखाः सरसावलेखाः स्वस्थे मनाङ्मनसिं ते लघु विस्मरन्ति । तत्कालजातमतिविस्फुरितानि पश्चा
ज्जीवान्यथा यदि भवन्ति कुतोऽप्रियं ते ॥१॥ ( भावहि अवियार दंसणविसुद्धो ) दीक्षाकाले दारिद्रयकाले रोगादिकाले च ये भावास्त्वया भाविता धर्माश्रयणपरिणामास्तान् भावान् हे जीव ! सदाकालमपि त्वं भावय, हे ( अवियार ) हे अविचार निर्विवेकजीव ! । अथवा हे अविकार रागद्वेषमोहादिदुष्परिणामवजितजीव !। कथंभूतः सन् भावय, ( सविसुद्धो) सम्यक्त्वकौस्तुभशोभितनिर्मलहृदयः सन् भावय । अथवा अवियारदंसणविसुद्धो इत्यकमेव पदं । तत्रायमर्थः-अविकारं पंचविंशतिदोषरहितं
जो स्मरण में आते ही अत्यन्त उद्वेग करने लगते हैं. भोगे हैं वे यों ही रहें उनकी चर्चा छोड़ अभी तू उसी एक दुःखका स्मरण कर जो तूने निर्धन अवस्था में कामको बाधा से युक्त स्त्रियों को मन्दमुसकान और शुक्लकटाक्ष रूपी कामके शस्त्रों द्वारा हिमसे दग्ध-तुषारसे शोभित बाल वृक्षकी तरह प्राप्त किया है ॥१॥
आतंक हे जीव ! मन के कुछ स्वस्थ होते ही तू दुःख रूपी अग्नि को लपलपाती ज्वालाओं को शीघ्र भूल जाता है । दुःखके समय तेरी बुद्धि में जो सद्विचार प्रस्फुरित हुए थे वे यदि पीछे भो-दुःख दूर हो जाने के बाद भी स्थिर रहते तो तुझे दुःख होता ही कैसे ? ॥१॥ ___इस प्रकार दीक्षा लेते समय, दरिद्रता के समय अथवा रोग आदिके समय यह जीव जिनधर्म रूप परिणामोंका आश्रय लेता है पीछे चलकर उन परिणामों को भूला देता है और विचार-शून्य होकर पुनः विषयों की ओर आकृष्ट होने लगता है । आचार्य ऐसे ही जोवोंको संबोधते हुए कहते हैं कि हे अविवेकी जीव ! यदि तू उत्तम रत्नत्रय प्राप्त करना चाहता है तो अपने विवेक को तिलाञ्जलि न दे। उस विवेक के द्वारा तू सार-श्रेष्ठ और असार अश्रेष्ठ वस्तुओं का निर्धार कर, सम्यग्दर्शन को शुद्ध रख तथा दीक्षा आदिके समय होने वाले सद्विचारोंका स्मरण कर उन्हें भूल मत जा।
गाथा में आये हुए 'अवियार' इस प्राकृत शब्दकी संस्कृत छाया 'अविचार' और 'अविकार' दोनों हो सकती हैं। ऊपर 'अविचार' छायाको स्वीकृत कर अर्थ किया है, 'अविकार' छायाके पक्ष में अर्थ होता है है
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