Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-१.१०८]
भावप्राभृतम् 'आक्रुष्टोऽहं हतो नैव हत्तो वा न द्विधाकृतः । मारितो न हतो धर्मो मदीयोऽनेन बन्धुना ॥१॥
चित्तस्थमप्यनवबुराया हरेण जाड्यात् क्रुद्ध्वा बहिः किमपि दग्धमनङ्गबुद्ध्या । घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्था
क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः ॥ २॥ दिक्खाकालाईयं भावहि अवियार दंसणविसुद्धो । उत्तमबोहिणिमित्तं असारसंसारमुणिऊण ॥१०८॥ दोक्षाकालादीयं भावय अविचार ! दर्शनविशुद्धः।
उत्तमबोधिनिमित्त असारसाराणि ज्ञात्वा ॥१०८।। (दिक्खाकालाईयं ) दीक्षाकाले खलु जीवस्य परमवैराग्यं भवति, दीक्षाकालं आदिर्यस्य रोगोत्पत्तिप्रभृतिकालस्य स दीक्षाकालादिः दीक्षाकालादो भवो दीक्षाकालादीयो भावस्तं दीक्षाकालादीयं निजपरिणामविशेष हे जीव आत्मन् ! हे
.. आकष्टोऽहं-दूसरेके द्वारा गाली दिये जानेपर मुनि विचार करते हैं कि इस भाईने मुझे गाली दी है मारा तो नहीं है। पीटे जानेपर विचार करते हैं कि पीटा ही है मेरे दो टुकड़े तो नहीं किये अर्थात् मुझे जान से तो नहीं मारा है और मारे जानेपर विचार करते हैं कि मुझे मारा ही है मेरा धर्म तो नहीं नष्ट किया। - 'चित्तस्थ-चित्त में स्थित कामको न समझ कर महादेव ने क्रोध-वश बाहर स्थित किसी पदार्थको काम समझ जला दिया। पीछे उसी कामके द्वारा की हुई भयंकर दुर्दशाको प्राप्त हए। सो ठीक ही है क्योंकि क्रोध से किस की कार्य-हानि नहीं होती ? ॥१०७।।
गाथार्थ हे विचारहीन ! साधो ! तू उत्तम रत्नत्रय की प्राप्तिके निमित्त असार और सारको जान कर सम्यग्दर्शन से विशुद्ध होता हुआ दीक्षा आदिके समय होनेवाले भावका स्मरण कर ॥१०८॥
विशेषार्थ-दीक्षा लेते समय इस जीवके परिणामों में बड़ी निर्मलता होती है । उस समय यह सोचता है कि आजसे लेकर अब में स्त्रीका मुख नहीं देखूगा क्योंकि स्त्रियों में रागी होकर ही मैं अनादि कालसे संसारमें
१. यशस्तिलके आकृष्टोऽहं म । २. वात्मानुशासने।
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