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षट्प्राभृते
[५.१०८
चैतन्य ! हे मुने ! त्वं । (भावहि ) - भावय तं परिणामं त्वं स्मर । यदहमद्यप्रभृति वनितामुखं न पश्यामि वनितासु रक्तोऽहमनादिकाले संसारे पर्यटतोऽवाञ्छितमेव
,
दुःखं प्राप्तः, अर्हनशमाकांक्षन्नपि सुखलेशं न लब्धवान् । तदुक्तं -
'अजाकृपाणीयमनुष्ठितं त्वया विकल्पमूढेन भवादितः पुरा । यदत्र किंचित्सुखलेशमाप्यते तदार्यं ! विद्धयन्त्रकवर्तकीयकम् ॥ १॥
अन्यच्च
संसारे नरकादिषु स्मृतिपथेऽप्युद्वेगकारी प्यलं दुःखानि प्रतिसेवितानि भवता तान्येवमेवासताम् । तत्तावत् स्मर स्मरस्मित ४ सितापाङ्गरनङ्गायुर्वामानां हिमदग्ध मुग्धत रुवद्यत्प्राप्तवान्निर्धनः ॥ १ ॥
है
भ्रमण करता हुआ अनचाहे दुःखोंको प्राप्त हुआ हूँ और निरन्तर चाहता हुआ भी सुखके अंश मात्रको नहीं प्राप्त हो सका हूँ । जैसा कि कहा हैअजा-- हे आत्मन् ! तू ने विकल्पों में मूढ होकर जन्मके प्रारम्भ से ही पहले अजाकृपाणीय न्याय का अनुसरण किया अर्थात् जिस प्रकार कोई हिंसक अजा बकरी को मारनेके लिये शस्त्र खोज रहा था परन्तु शस्त्रके न मिलने से विवश था। इसी बीचमें उस बकरी ने अपने पैरोंसे धूलि हटाकर उसमें छिपी तलवारको प्रकट कर दिया और उस तलवार से हिंसक ने बकरीका घात कर दिया । सों जिस प्रकार बकरीका प्रयास उसीका घात करने वाला हुआ उसी प्रकार इस जीवका भोगोपभोगकी सामग्रीको एकत्रित करनेका प्रयास उसे ही कुगति में डालने वाला होता. है । हैं आर्य ! इस संसार में प्रथम तो सुख है ही नहीं, फिर भी जो कुछ सुखका अंश प्राप्त होता है उसे अन्धक-वर्तकीय न्याय समझ अर्थात् जिस प्रकार अन्धे मनुष्य के हाथ अकस्मात् बटेर लग जाती है उसी तरह इस जीवको अकस्मात् कुछ सुखका अंश प्राप्त हो जाता है । तेरे पुरुषार्थसे प्राप्त नहीं होता है ||१||
और भी कहा है
संसारे- संसारके मध्य नरकादि गतियोंमें जो तू ने ऐसे ऐसे दुःख कि
१. आत्मानुशासने ।
२. आत्मानुशासने ।
३. तत्तावत्स्मरसि म० । ४. शिता० म० ।
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