________________
४८३
-५. १०६ ]
भावप्राभृतम् सत्पुरुषा महामुनयो दिगम्बराः सदृष्टयो गृहस्थाश्च । किमर्थ सहन्ते ? (कम्ममलनासण→ ) कर्माणि ज्ञानावरणादोनि मलानि-अतिचाराश्च तेषां नाशनार्थ क्षयार्थ परमनिर्वाणप्राप्त्यर्थ च । ( भावेण य णिम्ममा सवणा) भावेन जिनसम्यक्त्ववासनया निर्ममा ममेत्यकारान्तमव्ययशब्दः ममत्वरहिताः श्रवणा दिगम्बरा महामुनयः । पावं खवइ असेसं खमाए परिमंडिओ य मुणिपवरो। खेयरअमरणराणं पसंसणोओ धुवं होई ॥१०६॥
पापं क्षपति अशेषं क्षमया परिमण्डितश्च मुनिप्रवरः ।
खेचरामराणां प्रशंसनीयो ध्रुवं भवति ॥ १०६ ॥ (पावं खवइ असेसं ) पापं त्रिषष्ठिप्रकृतिलक्षणं क्षिपते अशेषं द्वासप्ततित्रयोदशप्रकृतिरूपमघातिकर्मलक्षणं च प्रकृतिसमुदायं च क्षिपते। कया, ( खमाए) क्षमया पार्श्वनाथवत् उत्तमक्षमालक्षणपरिणामेन । (परिमंडियो य) परि समन्तान्मनोवचनकायप्रकारेण मंडितः शोभितश्च । ( मणिपवरो) मुनिप्रवरो मुनीनां श्रेष्ठः । चकार उक्तसमुच्चयार्थः । तेनान्योऽपि कोऽपि गृहस्थोऽपि क्षमापरिणामेन स्वर्ग गत्वा पारंपर्येण मोक्षं याति इति ज्ञातव्यं । ( खेयरअमरनराणं ) खेचराणां विद्याधराणां अमराणां भावनव्यन्तरज्योतिष्ककल्पवासिनां कल्पातीतानां
• सम्यग्दष्टि सत्पुरुष जिन सम्यक्त्व की भावना से इतने निर्ममत्व हो चुकते हैं कि उनका उस ओर लक्ष्य ही नहीं जाता। जिसे अपने महंतपनका गर्व होता है उसे ही दूसरों के कुवचन सुनकर क्रोध उत्पन्न होता है परन्तु जो महन्तपनेसे सर्वथा ममकार-ममताभाव छोड़ चुकता है उसे क्रोध उत्पन्न होनेका अवसर नहीं आता ॥१०॥ ___ गाथार्य-क्षमा से सुशोभित श्रेष्ठ मुनि समस्त पापोंका क्षय करता है और विद्याधर देव तथा मनुष्यों में निश्चय से प्रशंसनीय होता है ॥१०६॥
विशेषार्थ-जो श्रेष्ठ मुनि श्रीपार्श्वनाथ भगवान्के समान उत्तम क्षमा रूप परिणाम से परिमण्डित है अर्थात् मन वचन काय सम्बन्धो तीन प्रकार की क्षमा से सुशोभित है वह मुनि अवस्था में प्रेसठ कर्म प्रकृति रूप पापका क्षय करता है और अरहन्त अवस्था में चौदहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में बहत्तर तथा अन्त समय में तेरह कर्म प्रकृति रूप पापको नष्ट करता है तथा समस्त विद्याधर, चतुर्णिकाय के देव और भूमिगोचरी मनुष्यों में संस्कृत प्राकृत आदि भाषाओं में निबद्ध गद्य पद्य रूप
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org