Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-५. १०४ ]
भावप्राभृतम्
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तदुक्तं प्राकृतव्याकरणे“उच्चारलघुत्वमेदोतोव्यंजनस्थयोः”
निजशक्त्या हे महायशः ! | ( भत्तीराएण णिच्चकालम्मि ) भक्तिरागेण निकाले । ( तं कुण ) त्वं कुरु । ( जिणभत्तिपरं ) जिनभक्तौ परमुत्कृष्टं । ( विज्जावच्चं ) वैयावृत्यं । ( दसवियप्पं ) दशविकल्पं दशमेकं आचार्यादीनां पूर्वोक्तानाम् ।
जं किचि कथं दोसं मणवयकाएहि असुहभावेण ।
तं गरहि गुरुसयासे गारव मायं च मोत्तूण १ ॥ १०४ ॥ यः कश्चित् कृतो दोषः मनवचनकायैः अशुभभावेन ।
तं गर्ह गुरुसकाशे गावं मायां च मुक्त्वा ॥ १०४ ॥
( जं किंचि कथं दोसं ) य: कश्चित्कृतो दोष: व्रतादिष्वतीचारः । ( मणवयकाएहि असुहभावेण ) मनोवचकायैरशुभभावेन रागद्वेषमोहादिदुष्परिणामेन । ( तं ) दोषमतीचारादिकं गर्ह - प्रकाशय । ( गुरुसयासे ) गुरुसकाशे गुरुपार्श्वे आचार्य
छन्दोभङ्ग हो जावेगा क्योंकि आर्या या गाथा छन्दके प्रथम पाद में बारह मात्राएँ होती हैं । प्राकृत व्याकरण का सूत्र भी है
उच्चार—व्यञ्जनस्थ एकार और ओकार के उच्चारण में लघुत्व होता है ॥ १०३ ॥
गाथार्थ - हे मुने! तूने अशुभ भावसे मन वचन कायके द्वारा जो कोई दोष किया हो उसकी गारव और मायाको छोड़ कर गुरुके समीप -आलोचना कर ॥ १०४ ॥
विशेषार्थ - राग, द्वेष, मोह आदि खोटे परिणाम को अशुभ भाव कहते हैं । हे मुने ! अशुभ भावसे प्रेरित होकर यदि मन-वचन और काय से तूने कोई दोष किया है अर्थात् अपने गृहीत व्रतमें अतिचार लगाया है तो उसे गुरु पादमूल में रस, ऋद्धि, शब्द और सातके भेदसे चार प्रकार के गर्व को तथा मायाचारको छोड़ कर प्रकट कर उनकी आलोचना कर । भगवती आराधना में जो आकम्पित आदि आलोचना के दश दोष बतलाये हैं उन्हें बचाकर आलोचना करना चाहिये । जैसा कि कहा गया है
१. 'तुमतुआणतूणाश्चतुष्कं क्त्वायाः । इत्यनेन मोत्तृण इत्यत्र क्त्वायाः तूणा
देश: ।
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