Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षट्प्राभूते
[ ५.९९
गृह्यते निजाम्यूषान् दत्वा परेषामभ्युषा गृह्यन्ते एवं यत्परिवर्त्यते यतिभ्यो दीयते दास्यते वा स परिवर्तः कथ्यते (११) ग्रामात् पाटकात् गृहान्तराद्यदायातं तदभिहित कथ्यते तद्योग्यं न भवति । कुतोऽप्यायातं योग्यं भवतीति चेत् ? भवति योग्यं यदि ऋजुत आसन्नादासमाद्गृहादायातं तत् योग्यं । पंक्तिबद्धात् षष्ठाद्गृहाद्यदायातं तत्कल्पते सप्तमाद्गृहात् यदुपढौकितं तन्न कल्पते इत्यर्थः (१२) विमुद्रादिक यदन्नादिकं भवति तदुद्भिन्नमुच्यते -- उद्घाटितं न भुज्यते इत्यर्थः (१३) मालिकादिस - मारोहणेन यदानीतं तन्मालिका रोहणमुच्यते — उपरितनभूमेर्यद्वृतादिकमघस्तनभूमी समानीतं तन्न कल्पते इत्यर्थः (१४) 'राजभयाच्चौरभयाद्यद्दीयते तदाच्छेद्य मुद्यते (१५) ईशानीशानभिमतेन स्वाम्यस्वाम्यनभिमतेन यद्दोयते तदनिसृष्टं कथ्यते (१६) इत्येते षोडशोद्गमदोषा भवन्ति ।
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किसी गृहस्थ को मोटी धान देकर उसके बदले महीन धान ली जाती है अथवा अपना मोटे चावलों का भात देकर दूसरे से महीन चावलों का भात लिया जाता है अथवा अपने मोटे अनाज के मांडे देकर दूसरे से अच्छे अनाज के मांडेलिये जाते हैं, इस प्रकार परिवर्तन कर मुनियों के लिये जो दिया जाता है अथवा दिया जावेगा वह परिवर्त दोष कहलाता है ११ । जो आहार दूसरे ग्राम, दूसरे मुहल्ला अथवा दूसरे घर से लाया गया हो वह अभिहित कहलाता है । ऐसा आहार मुनियों के योग्य नहीं है । प्रश्न - कहीं से आया हुआ योग्य भी होता है ?
उत्तर - योग्य होता है, यदि सीधो पंक्ति में स्थित निकटवर्ती सातवें घर से पहले-पहले तक के घरोंसें लाया गया हो । अर्थात् एक पंक्ति में स्थित छठवें घर से जो आहार लाया गया है वह मुनियों को देनेके योग्य है किन्तु सातवें घरसे जो लाया गया है वह देनेके योग्य नहीं है १२ । जो अन्नादिक विमुद्रित हो अर्थात् उघड़ा पड़ा हो वह उद्भिन्न कहलाता है । ऐसे आहार को लेना उभिन्न दोष कहलाता है १३ । जो वस्तु आहार के समय ऊपर अटारी आदि पर चढ़कर नोचे लाई गई हो वह माला रोहण दोष कहलाता है जैसे नीचे की भूमिमें आहार हो रहा हो आवश्यकता देख ऊपर जाकर घी आदि निकाल लाना । इस तरह से लाई हुई वस्तु मुनिके योग्य नहीं है १४ । राजाके भय से अथवा चोरके भय से जो वस्तु छिपकर दी जाती है वह आच्छेद्य कहलाती है (१५) घरके स्वामी अथवा अन्य सदस्यों को संमतिके बिना जो आहार दिया जाता है वह अनिसृष्ट
१. चोरभयादिभयात् क० ।
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