Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
४६६ षट्प्रामृते
[५. ९९छायालदोसदूसियमसणं गसिउं असुद्धभावेण। पत्तोसि महावसणं तिरियगईए अणप्पवसो ॥१९॥ षट्चत्वारिंशद्दोषदूषितमशनं ग्रसित्वाऽशुद्धभावेन ।
प्राप्तोसि महाव्यसनं तियंग्गतो अनात्मवशः ॥९९॥ (छायालदोसदूसियं ) षट्चत्वारिंशद्दोषर्दूषितं मलिनीकृतं । ( असणं गसिउ असुद्धभावेण ) अशनं पिण्डं ग्रसित्वा अशुद्धभावेन मिथ्यादृष्टिपरिणामेन ख्यातिपूजालाभकश्मलिना परिणामेन । ( पत्तोसि महावसणं ) प्राप्तोऽसि हे जीव ! महाव्यसनं महादुःखं । कस्यां ? ( तिरियगईए अणप्पवसो ) तिर्यग्गत्यामनात्मवशो जिव्होपस्थादिषरिन्द्रियपराधीन इति भावः । ___ अथ के ते षट्चत्वारिंशदशनदोषा अशनस्येति चेत् ? षोडशसंख्या उद्गमदोषाः, तथा षोडशोत्पादनदोषाः, दशविधा एषणादोषाः, संयोजनाप्रमाणाङ्गारधूमदोषाश्चत्वार इति षट्चत्वारिंशदशनदोषाः प्राणिनः प्राणव्यपरोप आरम्भ उच्यते ( १ ) प्राणिनः उपद्रवणं उपद्रव कथ्यते (२ ) प्राणिनोऽङ्गच्छेदादिनिद्रावणमभिधीयते ( ३ ) प्राणिनः सन्तापकरणं परितापनं व्याह्रियते ( ४ ) एतैश्चतुभिर्दोषनिष्पन्नमन्नमतिनिन्दितमवःकर्म प्रपिपाद्यते । तदधःकर्म मनोवचनकायानां त्रयाणां प्रत्येकं कृतकारितानुमतभेदैनवविधं भवति । तेनाधः-कर्मणा रहिता
गाथार्थ--हे जोव ! तू अशुद्ध भावसे छयालीस दोषों के दूषित भोजन को ग्रहण कर तिर्यञ्च गति में पराधीन बन करके महा दुःख को प्राप्त हुआ है ॥२९॥
विशेषार्थ-यहां अशुद्ध भावसे मिथ्यादृष्टि परिणाम अथवा ख्याति लाभ पूजा आदि से मलिन परिणाम लेना है । हे जोव ! तू इस अशुद्ध भावसे छयालीस दोषों से दूषित आहार को ग्रहण कर तिर्यञ्चगति में उत्पन्न हुआ है और वहां तूने जिह्वा तथा उपस्थ आदि छह इन्द्रियों के पराधीन होकर बहुत भारी दुःख को प्राप्त किया है।
अब आहार के वे छयालीस दोष कौन हैं ? इसका वर्णन करते हैं
सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दश एषणा दोष और चार संयोजन, अप्रमाण, अङ्गार तथा धूम दोष, इस प्रकार सब मिलाकर आहार-सम्बन्धी छयालीस दोष होते हैं। प्राणोके प्राणोंका विघात करना आरम्भ कहलाता है, किसी प्राणोको उपद्रव करना उपद्रव कहा जाता है, प्राणोके अङ्गोका छेद आदि करना विद्रावण कहलाता है और प्राणोको संताप करना परितापन कहा जाता है । इन चार दोषोंसे तैयार हुआ अन्न
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org