Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-५.८६]
भावप्राभृतम्
४४३,
इति पद्योक्तं चतुर्विध ध्यानं भावय हे जीव !।
अथ शालिसिक्थमत्स्यकथा यथा-श्रीपुष्पदन्तजिनजन्मभूमौ काकन्दीपुरे श्रावककुलजन्मा सौरसेनो राजा बभूव । सकलधर्मानुरोधेन मांसव्रतं जग्राह । पुनवेदवैद्यरुद्रमतमोहितमतिः मांसभक्षणमतिः संजातः, अङ्गीकृतवस्तुनिर्वाहनकारणाल्लोकापवादाच्च मांसं जुगुप्समानः मनोविश्रामहेतु कर्मप्रियनामकेतु सूपकारं स्वाहूर्यकान्ते निजाभिलाषं तमजिज्ञपत् । बिलचर-स्थलचर-जलचरजीवानां मांसमानायन्नपि अनेकराजकार्याकुलचित्ततया मांसभक्षणावसरं न प्राप । कर्मप्रियोऽपि नृपादेशं अहनिशं कुर्वन्नेकदा सर्पबालकेन दष्टो मृतः स्वयंभूरमणसमुद्रे महामत्स्यो बभूव । भूपः सौरसेनोऽपि चिरकालेन मृत्वा मांसभक्षणाशयानुबन्धा
हे आत्मन् ! इस पद्यमें कहे हुए चार प्रकारके सद्ध्यानका तू निरन्तर चिन्तन कर। अब शालिसिक्थ मत्स्य को कथा लिखते हैं
शालिमत्स्य की कथा श्री पुष्पदन्त भगवान् की जन्म भूमि काकन्दीपुर में श्रावक कुलमें उत्पन्न हुआ सौरसेन नामका राजा था। उसने मुनिराजके अनुरोधसे मांस-त्याग व्रत ग्रहण किया परन्तु पीछे वेदविद्या के ज्ञाता रुद्रमत से मोहित-बुद्धि होनेके कारण उसको मांस खानेमें रुचि हो गई। गृहीत व्रत के निर्वाह के कारण तथा लोकापवाद के भयसे वह प्रत्यक्ष तो मांस से घृणा करता था परन्तु अन्तरङ्ग में उसकी इच्छा लगी रहती थी। एक दिन उसने मानसिक विश्रामके कारण कर्म-प्रिय-केतु नामक रसोइया को एकान्त में बुलाकर उससे अपनी अभिलाषा प्रकट की। विलमें रहने वाले, स्थल में रहने वाले और जलमें रहने वाले जीवोंके मांसको वह बुलवाता तो था परन्तु राज्यसम्बन्धी अनेक कार्यों में व्यग्रचित्त होनेके कारण उसे खानेका अवसर नहीं प्राप्त कर पाता था। कर्मप्रिय रसोइया भी राजाके आदेश का पालन करता हुआ प्रतिदिन मांस तैयार करता था। एक दिन साँपके बच्चेने उसे डस लिया जिससे वह मर गया और मरकर स्वयंभू रमण समुद्र में महामत्स्य हुआ। इधर सौरसेन राजा भी चिरकाल बाद मरकर मांस-भक्षण के अभिप्राय का संस्कार रहने से उसी समुद्र में उसी महामत्स्य के कान रूप विलके मलको खानेवाला शालिसिक्थ प्रमाण शरीर का धारक मत्स्य हुआ। पश्चात् जब इसकी द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियों पूर्ण हो गई तब वह मुख खोलकर सोते हुए,
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