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-५. ९४-९५ ]
भावप्राभृतम्
भावहि अणुवेक्खाओ अवरे पणवीसभावणा भावि । भावरहिएण किं पुण बाहिरलिंगेण कायव्वं ॥ ९४ ॥
भावय अनुप्रेक्षा अपराः पञ्चविंशति भावना भावय । भावरहितेन किं पुनः बहिलिङ्गेन कार्यम् ॥ ९४ ॥
भावहि अणुवेक्खाओ ) भावय पुनः पुनश्चिन्तय अनुप्रेक्षा अनित्यादीः । ( अवरे पणवीसभावणा भावि ) अपरा: पंचविशतिभावना भावय । ( भावरहि - एण कि पुण ) भावरहितेन पुनः किं न किमपि इत्याक्षेपः । ( बाहिरलिंगेण काय ) बहिलिङ्ग ेन नग्नवेषेण कि साध्यं कर्मक्षयशून्यमिदं । सव्वविरओ विभावहि णवयपयत्थाई सत्त तच्चाई | जीवसमासाई मुणी चउदसगुणठाणणामाई ॥ ९५ ॥
सर्वविरतोपि भावंय नवकपदार्थान् सप्ततत्वानि । जीवसमासान् मुने ! चतुर्दशगुणस्थाननामानि ॥ ९५ ॥
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गाथार्थ - हे साधो ! तू बारह अनुप्रेक्षाओं और पच्चीस भावनाओं का चिन्तन कर क्योंकि भावसे रहित मात्र बाह्यलिङ्गसे क्या किया जा सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥९४॥
विशेषार्थ - 'अनुभूयोभूयः प्रकर्षेण ईक्षणम् अनुप्रेक्षा' इस व्युत्पत्ति के अनुसार पदार्थके स्वरूपका बार-बार श्रेष्ठता के साथ विचार करना अनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षाओं के बारह भेद हैं-१ अनित्य २ अशरण ३ संसार ४ एकत्व ५ अन्यत्व ६ अशुचित्व ७ आस्रव ८ संवर ९ निर्जरा १० लोक ११ बोधि दुर्लभ और धर्म | हे मुने ! तुझे इन भावनाओं का निरन्तर चिन्तन करना चाहिये क्योंकि वैराग्यको उत्पन्न करनेके लिये ये माताके समान कही गई हैं । इनके सिवाय अहिंसादि पाँच व्रतों की पाँच-पाँच के परिगणन से पच्चीस भावनाओं का भी निरन्तर चिन्तन करना चाहिये क्योंकि वे व्रतोंको स्थिरताको करनेवाली हैं । इन भावनाओं का वर्णन पहले आ चुका है । इन दोनों प्रकारकी भावनाओं के चिन्तन से तू अपने भावकी सम्हाल पहले कर । क्योंकि भावके बिना बाह्य लिङ्ग - नग्नमुद्रा धारण करने से क्या लाभ है ? मात्र बाह्यलिङ्ग कर्मक्षयका कारण नहीं है ।। ९४ ।।
गावार्थ - हे मुने ! सबसे विरत होने पर भी तू नव पदार्थ, सात
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