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षट्प्राभृते ( सम्वविरओ वि भावहि ) सर्वविरतोऽपि हे जीव ! स्वं महावत्यपि सन् भावय । (णवयपयत्थाई सत्ततच्चाई) नवपदार्थान् जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षपुण्यपापपदार्थान् । चेतनालक्षणो जीवः । पुद्गलधर्माधर्मकालाकाशा अजीवाः । आत्मप्रदेशेषु कर्मपरमाणव आगच्छन्ति स आस्रवो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगरूपः । आत्मप्रदेशेषु आस्रवानन्तर द्वितीयसमये कर्मपरमाणवः श्लिष्यन्ति स बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदाच्चतुर्विधः । आस्रवस्य निरोधः
तत्व, चौदह जीव समास और चौदह गुण स्थानों का चिन्तन अवश्य कर' ।। ९५ ॥
विशेषार्थ-हे मुने ! यद्यपि तू हिंसादि समस्त पापोंसे विरक्त होकर महाव्रतीं हुआ है तथापि जीव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा मोक्ष पुण्य और पाप इन नौ पदार्थोंका तथा पुण्य और पापको छोड़ जीव अजीव आदि सात तत्त्वोंका चौदह जीवसमासोंका तथा चौदह गुणस्थानोंका चिन्तवन अवश्य कर-इनके स्वरूपका विचार अवश्य कर ।
जिसमें चेतना पाई जाती है उसे जीव कहते हैं। जिसमें चेतना नहीं है उसे अजीव कहते हैं । पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल की अपेक्षा अजीव के पांच भेद हैं । आत्म-प्रदेशों में कर्म परमाणु आते हैं यहो आस्रव है। यह मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग रूप होता है। आस्रव के बाद द्वितीय समय में कर्म परमाणु आत्मप्रदेशों में श्लेष को प्राप्त हो जाते हैं यही बन्ध कहलाता है इसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, और प्रदेश के भेदसे चार भेद होते हैं । आस्रव का रुक जाना संवर कहलाता है। वह संवर 'गुप्ति-समिति-धर्मानु-प्रेक्षा-परीषहजय-चारित्रैः' इस सूत्र के अनुसार ३ गुप्ति ५ समिति १० धर्म १२ अनुप्रेक्षा २२ परीषह जय और ५ चारित्रों से होता है। [जो आत्माको पवित्र करे उसे पुण्य कहते हैं
१. यहाँ गाथा में जैसा पाठ है उसके आधार पर गाथाके उत्तरार्धका अर्थ होता
है 'गुणस्थान नाम वाले चौदह जीव-समासों की भावना कर' परन्तु टीकाकारने जीव समास और गुणस्थानोंका अलग-अलग वर्णन किया है। गुणस्थानों को भी जीव-समास शब्दसे कहा जाता रहा है जैसे कि जीव काण्ड में ‘मिस्सो सासण मिच्छो'-आदि गाथाओंके अन्त में लिखा है-'चउदह जीवसमासा कमेण सिद्धाय णादव्वा'। यहां टीकाकार ने जीव काण्डके उस पाठको बदल कर 'चक्षुदस गुणठाचाणि य' ऐसा पाठ रखा है।
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