Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-५.८८ ]
भावप्राभृतम्
૪૧
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( बाहिरसंगचाओ ) बाह्यसंगत्यागः निरर्थक इति सम्बन्ध: ( गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो ) गिरा आवासाः पर्वतोपरि आतापनयोगः पर्वते स्थितिर्वा, सरित्--नदीतटे तपश्चरणं भगीरथवत्, दरी गुहायामावासः कन्दरो गिर्यादिविवरं तत्रावास, आदिशब्दात् श्मशानोद्यानादो आवास: स्थितिः । ( सयलो णाणज्झयणो ) सकलं वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशलक्षणं ज्ञानाध्ययनं शास्त्रपठनं । ( निरत्थओ भावरहियाणं ) भावरहितानां जिनसम्यक्त्वविवर्जितानां निजशुद्ध बुद्ध कस्वभावात्मभावनाप्रच्युतानां यतीनां उक्तं च-
बाह्यग्रन्थविहीना दरिद्रमनुजाः स्वभावतः सन्ति । यः पुनरन्तः संगत्यागी लोके स दुर्लभो जीवः ॥ १॥ भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणोमक्कडं पयत्तेण । मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुणसु ॥ ८८ ॥ भधि इन्द्रियसेनां भग्ध मनोमर्कटं प्रयत्नेन । मा जनरञ्जनकरणं बहि तवेष ! त्वं कार्षीः ॥ ८८ ॥
कन्दरा आदिमें निवास करना तथा समस्त शास्त्रोंका पढ़ना भावरहित जीवोंके निरर्थक है ||८७॥
विशेषार्थ - भावकी महिमा बतलाते हुए आचार्य कहते हैं कि भावरहित अर्थात् जिन सम्यक्त्व से विवर्जित अथवा शुद्ध बुद्धेक-स्वभाव से युक्त जिन आत्मा की भावना से च्युत मुनियोंका बाह्य परिग्रह का त्याग करना निरर्थक है, पर्वतके ऊपर आतापन योग धारण करना अथवा पर्वत पर रहना, भगीरथ के समान नदी तट पर तपस्या करना, गुहा में रहना तथा कन्दरा श्मशान उद्यान आदि में निवास करना निरर्थक है और वाचना प्रच्छना अनुप्रेक्षा आम्नाय तथा धर्मोपदेश रूप सब प्रकार . का ज्ञानाध्ययन - शास्त्र स्वाध्याय करना निरर्थक है । जैसा कि कहा गया है ।
बाह्य ग्रन्थ - दरिद्र मनुष्य तो बाह्य परिग्रहसे रहित स्वयं होता ही है। अर्थात् बाह्य परिग्रह के त्यागी मनुष्य दुर्लभ नहीं हैं किन्तु जो अन्तरङ्ग परिग्रह का त्यागी है लोक में वही दुर्लभ है ||८७॥
गाथार्थ - हे बाह्य व्रत वेषके धारक साधो ! तू इन्द्रियों की सेनाको भग्न कर, प्रयत्न पूर्वक मन रूपी वानरको नष्ट कर तथा जनता के अनुराग को उत्पन्न करने वाला कार्य मत कर ॥८८॥
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