Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
घट्नाभूते
४४२
[५.८६गतः प्राप्तः महानरकं सप्तमं नरक गतः। ( इय णा अप्पाणं ) इति ज्ञात्वात्मानं शुद्धबुद्ध कस्वभावरूपं टंकोत्कीर्णस्फटिकविबोपम चिच्चमत्कारलक्षणं मुक्तिगतसिद्धसमानं शुद्धनिश्चयनयेन सिद्ध ज्ञायककस्वभावं हे जीव ! हे आत्मन् ! ( भावह जिणभावणा णिच्चं ) भावय त्वं भावनाविषयं कुरु इयं जिनभावनेति ज्ञात्वा, अथवा जिनभावनां जीवादिसप्ततत्वश्रद्धानं च नित्यं सर्वकालं भावय रोचस्व तस्मादिति अपध्यानं परिहृत्य अन्तस्तत्वं वहिस्तत्वं चाश्रयेति भावार्थः । कि तपदपधानं?--
'वघबन्धच्छेदादे रागद्वेषाच्च परकलत्रादेः। आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ॥ १॥ "पदस्थं मंत्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनं । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरंजनं ॥"
समान सातवें नरक में उत्पन्न होता है इसलिये आचार्य सावधान करते हुए कहते हैं कि देखो अशुद्धभावों के कारण शालिसिक्थ मत्स्य सातवें नरक गया। अतः हे आत्मन् ! तू निरन्तर शुद्ध बुद्धक-स्वभाव, टोत्कीर्ण स्फटिक बिम्बके तुल्य, चिच्चमत्कार लक्षण, मुक्तिको प्राप्त सिद्ध के समान, शुद्धनिश्चयनय से सिद्ध एवं एक स्वभावसे युक्त आत्मा की भावना कर-उसे ही भावनाका विषय बना तथा यही जिन भावना है-- आत्मचिन्तन ही जिनचिन्तन है ऐसा समझ । अथवा आत्मभावना रूप निश्चयसम्यक्त्व और जिन-भावना-जीवादि सप्ततत्वके श्रद्धानरूप व्यवहार सम्यक्त्वका सदा चिन्तन कर । अर्थात् अपध्यान को छोड़कर अन्तस्तत्व और बहिस्तत्वका आश्रय ग्रहण कर ।
प्रश्न--वह अपध्यान क्या है ?
उत्तर-द्वेष-वश किसीके वध बन्धन और छेद आदिका तथा रागवश परस्त्री आदिका निरन्तर ध्यान करना अपध्यान है, ऐसा जिनशासन के ज्ञाता आचार्य कहते हैं।
पदस्थं-मन्त्र वाक्य रूप पदस्थ, स्वात्म-चिन्तन रूप पिण्डस्थ, सर्वचैतन्य रूप, रूपस्थ और कर्म कालिमा से रहित सिद्ध परमेष्ठी रूप रूपातोत इस प्रकार सध्यान के चार भेद हैं।
१. रत्नकरण्डश्रावकाचारे। २. द्वेषाद्रागाति पाठान्तरमन्यत्र ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org