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षट्प्राभृते
[५.८०
जह रयणाणं पवरं वज्जं जह तरुगणाण गोसीरं । तह धम्माणं पवरं जिणधम्मं भावि भवमहणं ॥ ८०॥
यथा रत्नानां प्रवरं वज्र यथा तरुगणानां गोशीरम् । तथा धर्माणां प्रवरं जिनधर्मं भावय भवमथनम् ||८०||
( जहरयणाणं पवरं ) तथा येन प्रकारेण रत्नानां मध्ये प्रवरं उत्तमं रत्नं किं 'वज्र' हीरकं षट्कोणं मौक्तिक गोमेदपुष्परागपुलक प्रवाल चन्द्रकान्तरविकान्त जलकान्तहंसगर्भमसारगर्भरुचकपद्मरागेन्द्रनीलमहा -- नीलनीलम रकतवैडूर्यलशुनकर्केतनेत्यादीनां रत्नानां मध्ये ( वज्जं ) वज्र हीरकं हि सर्वोत्तमं तस्य देवाधिष्ठितत्वात् । ( जह तरुगणाण गोसीरं ) तरुगणानां मध्ये यथा गोशीर्ष तैलपणिकं परमोत्तमचन्दनं प्रवरं । ( तह धम्माणं पवरं ) तथा धर्माणां मध्ये जिनधर्म प्रवरं । हे मुने ! त्वं ( भावि भवमहणं ) भावय रोचय भवमथनं संसारविच्छेदकम् ।
मुनियों को इनकी आवश्यकता नहीं रहती । जिन-लिङ्ग शुद्ध होता है और शुद्ध का अर्थ है चमड़े में रखे हुए जल तैल घी तथा हींग का जिसमें सेवन नहीं किया जाता, जिसमें उद्दण्डचर्या अर्थात् भिक्षावृत्तिसे भोजन किया जाता है । बत्तीस अन्तराय और चौदह मल रहित जिसमें भोजन किया जाता है || ७९||
गाथार्थ - जिस प्रकार रत्नों में हीरा और वृक्षों के समूह में चन्दन उत्कृष्ट है उसी प्रकार धर्मों में संसार को नष्ट करने वाला जिन-धर्म उत्कृष्ट है ॥८०॥
विशेषार्थ - जिस प्रकार मौक्तिक, गोमेद, पुष्पराग, पुलक, प्रवाल, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, जलकान्त, हंसगर्भ, मसारगर्भ, रुचक, पद्मराग, इन्द्रनील, महानील, नोल, मरकत, वैड यं, लशुन और कर्केतन आदि रत्नों में षट्कोण होरक मणि सर्वोत्तम होता है क्योंकि देव उसे धारण करते हैं और वृक्षोंके समूह में जिस प्रकार गोशीर्ष नामका चन्दन सर्वोत्तम होता है उसी प्रकार सब धर्मों में जैन धर्म सर्वोत्तम धर्म है क्योंकि वह संसार को नष्ट करने वाला है। हे मुने ! तुम इसी जिन धर्म को भावना करो, उसी की रुचि श्रद्धा करो ||८०||
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