Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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-५.८१]
भावप्राभृतम्
४३७
भावस्य चिच्चमत्कारलक्षणश्चिदानन्दरूपः परिणामो धर्म इत्युच्यते । स परिणामो गृहस्थानां न भवति पंचसूनासहितत्वात् तथा चोक्तं
खण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुंभः प्रमार्जनी ।
पंचसूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति ॥ १॥ .यदि मोक्षं न गच्छति तदा जिनसम्यक्त्वपूर्वकं दानपूजादिलक्षणं विशिष्टगुणमुपार्जयन् [ पुण्यं ] गृहस्थः स्वर्ग गच्छति परंपरया जिनलिंगेन मोक्षमपि प्राप्नोति ।
ऐसा परिणाम गृहस्थों के नहीं होता है क्योंकि वे पञ्च सूनाओं से सहित रहते हैं । जैसा कि कहा गया है___ खण्डनो--कूटना, पीसना, चूला सिलगाना, पानी भरना और बुहारी देना ये पाँच हिंसाके कार्य गृहस्थके होते हैं, अतः वह मोक्ष नहीं जाता है, यद्यपि गृहस्थ साक्षात् मोक्ष नहीं जाता है तो भी जिनसम्यक्त्व पूर्वक दान पूजादि रूप विशिष्ट पुण्यका उपार्जन करता हुआ स्वर्ग जाता है और परम्परासे जिनलिङ्ग धारण कर मोक्षको भी प्राप्त होता है ॥८१॥
__ [इस गाथा में श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने पूण्य और धर्मकी परिभाषाएँ स्पष्ट करते हुए दोनों में पार्थक्य सिद्ध किया है पूजा दान तथा व्रताचरण आदिको पुण्य बताया है तथा उन्हें साक्षात् स्वर्ग की प्राप्तिका कारण कहा है। पुण्य शुभोपयोग का कार्य है और मोह अर्थात् मिथ्यात्व और क्षोभ अर्थात् रागद्वेष से रहित आत्मा की निर्मल परिणति को धर्म कहा है। यह निर्मल परिणति शुद्धोपयोग में होती है और साक्षात् मोक्षका कारण है । गृहस्थ अपने पदके अनुकूल पुण्य रूप आचरण करता है और धर्मके वास्तविक स्वरूप की श्रद्धा रखता है । शुद्धोपयोग रूप परिणति के होनेपर शुभोपयोग रूप परिणति स्वयं छूट जाती है, शुभोपयोग का कार्य होनेसे यद्यपि पुण्य बन्ध का कारण है तथापि गृहस्थ की उसमें प्रवृत्ति होती है । शुद्धोपयोग की अपेक्षा शुभोपयोग हेय है और अशुभोपयोगकी अपेक्षा उपादेय है। गृहस्थ की शुद्धोपयोग की प्राप्ति हो नहीं सकती, इसलिये अशुभोपयोग से बचकर शुभोपयोग में प्रवृत्ति करने की आचार्यों ने उसे प्रेरणा दी है। जिन आचार्यों ने पुण्य को धर्म मानकर उसके करने के लिये आदेश दिया है वह पात्रकी योग्यता को लक्ष्य कर दिया है।]
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